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________________ १५० जैन-दर्शन र काय का अर्थ है अनेक प्रदेशों का समूह । जहाँ अनेक प्रदेशों का समूह होता है वह अस्तिकाय कहा जाता है।' इसी चीज को और स्पष्ट करने के लिए हमें प्रदेश का अर्थ भी समझना चाहिए। पुद्गल का एक अणु जितना स्थान (ग्राकाश) घेरता है, उसे प्रदेश कहते हैं ।" यह एक प्रदेश का परिमारण है । इस प्रकार के अनेक प्रदेश जिस द्रव्य में पाए जाते हैं, वह द्रव्य ग्रस्तिकाय कहा जाता है । प्रदेश का उक्त परिमारग एक प्रकार का नाप है । इस नाप से पुद्गल के प्रतिरिक्त श्रन्य पाँचों द्रव्य भी नापे जा सकते हैं । यद्यपि जीवादि द्रव्य रूपी हैं, किन्तु उनकी स्थिति आकाश में है और आकाश स्वप्रतिष्ठित है । अतः उनका परिमाण समझने के लिये नापा जा सकता है । यह ठीक है कि पुद्गलद्रव्य को छोड़कर शेष द्रव्यों का इन्द्रियों से ग्रहरण नहीं हो सकता, किन्तु बुद्धि से उनका परिमाण नापा एवं समझा जा सकता है । धर्म, धर्म, आकाश, पुद्गल और जीव के अनेक प्रदेश होते हैं । अतः ये पाँचो द्रव्य अस्तिकाय कहे जाते हैं । इन प्रदेशों को व भी कह सकते हैं । अनेक अवयव वाले द्रव्य अस्तिकाय हैं । अद्धासमय अर्थात् काल के स्वतन्त्र निरन्वय प्रदेश होते हैं। वह अनेक प्रदेशों वाला एक प्रखण्ड द्रव्य नहीं है, अपितु उसके स्वतन्त्र अनेक प्रदेश हैं । प्रत्येक प्रदेश स्वतन्त्ररूप से अपना कार्य करता हैं । उनमें एक अवयवी की कल्पना नहीं की गई, ग्रपितु स्वतन्त्र रूप से सारे काल प्रदेशों को भिन्न-भिन्न द्रव्य माना गया । इस प्रकार ये काल द्रव्य. एक द्रव्य न होकर अनेक द्रव्य हैं । लक्षण की समानता से सबको 'काल' ऐसा एक नाम दे दिया गया । धर्म आदि द्रव्यों के समान काल एक द्रव्य नहीं है । 'इसलिए काल को अनस्तिकाय कहा गया । अस्तिकाय और अनस्तिकाय का यही स्वरूप है । १ - संति जदो तेोदे, प्रत्थित्ति भरणंति जिरणवरा जम्हा |काया इव बहुदेसा, तम्हा काया य अथिकाया य ॥ - द्रव्यसंग्रह, २४. २ - जावदियं प्रयासं, प्रविभागी पुग्गला वट्टद्धं । तं खु पदेसं जाणे, सव्वाट्ठारदागरिहं || - द्रव्यसंग्रह, २७
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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