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________________ १४४ जैन-दर्शन व्यक्ति कभी भिन्न भिन्न उपलब्ध नहीं होते, क्योंकि वे अयुत सिद्ध हैं ।' तथापि दोनों स्वतन्त्र एवं एक दूसरे से अत्यन्त भिन्न हैं । ___ चौथा पक्ष भेदविशिष्ट अभेद का है। इसके दो भेद हो जाते हैं । एक के मत से अभेद प्रधान रहता है और भेद गौण हो जाता है । उदाहरण के लिए रामानुज का विशिष्टाद्वैत लीजिए। रामानुज के मत से तीन तत्त्व अन्तिम और वास्तविक हैं—अचित्, चित् और ईश्वर । ये तीन तत्त्व "तत्त्वत्रय" के नाम से प्रसिद्ध हैं । यद्यपि तीनों तत्त्व समानरूप से सत् एवं वास्तविक हैं तथापि अचित् और चित् ईश्वराश्रित हैं । यद्यपि वे अपने आप में द्रव्य हैं किन्तु ईश्वर के सम्बन्ध की दृष्टि से वे उसके गुण हो जाते हैं । वे ईश्वर-शरीर कहे जाते हैं और ईश्वर उनकी प्रात्मा है । इस प्रकार ईश्वर चिदाचिद्विशिष्ट है । चित् और अचित् ईश्वर के शरीर का निर्माण करते हैं और तदाश्रित हैं । इस मत के अनुसार भेद की सत्ता तो अवश्य रहती है किन्तु अभेदाश्रित होकर । अभेद प्रधानरूप से रहता है और भेद तदाश्रित होकर गौण रूप से । भेद का स्थान स्वतन्त्र न होकर अभेद पर अवलम्बित है । भेद परतंत्र होता है और अभेद स्वतंत्र भेद अभेद की दया पर जोता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व मान्य नहीं होता । भेद और अभेद को भिन्न मानने वाला पक्ष दोनों को स्नतंत्र रूप से सत मानता है, जब कि उपर्युक्त पक्ष अभेद को प्रधान मान कर भेद को गौण एवं पराश्रित बना देता है । उसकी दृष्टि में अभेद का विशेष महत्त्व रहता है । भेद की मानता तो है, किन्तु इसलिए कि वह अभेद के आधार पर टिका हुआ है। जैन दृष्टि इससे भिन्न है । भेद और अभेद का सच्चा समन्वय जैन दर्शन की विशिष्ट देन है। जब हम भेदाभेदवाद की व्याख्या करते हैं तो उसका अर्थ होता है-भेदविशिष्ट अभेद और अभेद विशिष्ट भेद । भेद और अभेद दोनों समानरूप से सत् हैं। जिस १-अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानां इहप्रत्ययहेतुः सम्बन्धः स समवायः । ---- स्याद्वादमंजरी, का० ७ २–'सर्वं परमपुरुषेण सर्वात्मना । -श्रीभाष्य २, १, ६
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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