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________________ जैन दर्शन में तत्त्व १३६ वीर्यात्मा ।' ये भेद द्रव्य और पर्याय दोनों दृष्टियों से हैं । द्रव्यात्मा द्रव्यदृष्टि से और शेष सात पर्यायदृष्टि से हैं । इस प्रकार की अनेक चर्चाएँ जैन दार्शनिक साहित्य में मिलती हैं, जिनसे द्रव्य और पर्याय के सम्बन्ध का पता लगता है । द्रव्य और पर्याय एक दूसरे से इस प्रकार मिले हुए हैं कि एक के बिना दूसरे की स्थिति असम्भव है। द्रव्य-रहित पर्याय की उपलब्धि नहीं हो सकती उसी प्रकार पर्याय-रहित द्रव्य की उपलब्धि भी असम्भव है। जहाँ पर्याय होगा वहाँ द्रव्य अवश्य होगा और जहाँ द्रव्य होगा वहाँ उसका कोईन कोई पर्याय अवश्य होगा। भेदाभेदवादः दर्शन के क्षेत्र में भेद और अभेद को लेकर मुख्य रूप से चार पक्ष बन सकते हैं । एक पक्ष केवल भेद का समर्थन करता है, दूसरा पक्ष केवल अभेद को स्वीकृत करता है, तीसरा पक्ष भेद और अभेद दोनों को मानता है, चौथा पक्ष भेद-विशिष्ट अभेद का समर्थन करता है। _ भेदवादी किसी भी पदार्थ में अन्वय नहीं मानता । प्रत्येक क्षण में भिन्न भिन्न तत्त्व और भिन्न भिन्न ज्ञान की सत्ता में विश्वास करता है। उसकी दृष्टि में भेद को छोड़कर किसी भी प्रकार का तत्त्व निर्दोष नहीं होता। जहाँ भेद होता है वहीं वास्तविकता रहती है । भारतीय दर्शन में वैभाषिक और सौत्रान्तिक इस पक्ष के प्रवल समर्थक हैं। वे क्षरण-भंगवाद को ही अन्तिम सत्य मानते हैं। प्रत्येक पदार्थ क्षणिक है। प्रत्येक क्षण में पदार्थ की उत्पत्ति और विनाश होता है । कोई भी वस्तु चिरस्थायी नहीं है । जहाँ स्थायित्व नहीं वहाँ अभेद कैसे हो सकता है ? ज्ञान और पदार्थ दोनों क्षणिक हैं। जिसे हम आत्मा कहते हैं वह पंचस्कन्ध के अतिरिक्त और कुछ नहीं १-कहविहा रणं भन्ते पाया पण्णत्ता ? गोयमा ! अविहा आया पण्णत्ता । तं जहा-दवियाया, कसायाया, जोगाया, उवयोगाया, णाणाया दसराया, चरिताया, वीरियाया। -~भगवतीसूत्र, १२।१०।४६६
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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