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________________ १३२ - जैन-दर्शन सर्वदा एकमहीं होता । जान भी माना काल द्रव्य माना गया है और विशेष लक्षण के रूप में जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य माने गए हैं ।' वाचक उमास्वाति आगमिक मान्यता को दर्शन के स्तर पर लाए और उन्होंने द्रव्य को सत् कहा । उनकी दृष्टि में सत् और द्रव्य में कोई भेद न था। आगम की मान्यता के अनुसार भी सत् और द्रव्य में कोई भेद नहीं है किन्तु इस सिद्धान्त का आगमकाल में सुस्पष्ट प्रतिपादन न हो सका। उमास्वाति ने दार्शनिक पुट देकर इसे स्पष्ट किया। 'सत्' शब्द का अर्थ वाचक ने अन्य परम्पराओं से भिन्न रखा । न्यायवैशेषिक आदि वैदिक परम्पराएँ सत्ता को कूटस्थ नित्य मानती हैं। इन परम्पराओं के अनुसार सत्ता सर्वदा एकरूप रहती है। उसमें तनिक भी परिवर्तन की सम्भावना नहीं रहती। जो परिवर्तित होती है वह सत्ता नहीं हो सकती । दूसरे शब्दों में नैयायिक और वैशेषिक सत्ता को सामान्य नामक एक भिन्न पदार्थ मानते हैं, जो सर्वदा एकरूप रहता है, जो कूटस्थ नित्य है, जिसमें किंचित् भी परिवर्तन नहीं होता। उमास्वाति ने सत् को केवल नित्य ही न माना, अपितु परिवर्तनशील भी माना। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों का अविरोधी समन्वय ही सत् का लक्षण है। उत्पाद और व्यय अनित्यता के सूचक हैं तथा ध्रौव्य नित्यता का सूचक है । नित्यता का लक्षण कूटस्थ नित्य न होकर तद्भावाव्यय है । तद्भावाव्यय का क्या अर्थ है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा कि जो अपने भाव को न तो वर्तमान में छोड़ता है और न भविष्य में छोड़ेगा, वह नित्य है और वही तद्भावाव्यय है। उत्पाद और व्यय के बीच में जो हमेशा रहता है, वह तद्भावाव्यय है । सत्ता नामक कोई भिन्न पदार्थ नहीं है, जो हमेशा एक सा रहता है । वस्तु स्वयं ही त्रयात्मक है । तत्त्व स्वभाव से ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त हैं। पदार्थ स्वतः सत् है । सत्ता सामान्य के सम्बन्ध से सत् मानने में अनेक दोषों का सामना करना पड़ता है । जो सत् है वही पदार्थ है क्योंकि जो सत् १–'अविसेसिए दवे, विसे सिए जीवदव्वे अजीवदव्वे य-सू० १२३ २-'यत् सतो भावान व्येति न व्येष्यति, तन्नित्यम् । -तत्त्वार्थभाष्य ५।३०
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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