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________________ परिचय-रेखा पार्श्वनाथ और महावीर एक ही सांस्कृतिक परम्परा के प्रचारक-उपदेशक थे, यह वात आज निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुकी है । इस बात को प्रमाणभूत मान लेने पर यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि जैन-परम्परा के प्रवर्तक महावीर से भी पहले विद्यमान थे। यह परम्परा कितनी पुरानी है, इसका अन्तिम निर्णय हमारी ऐतिहासिक दृष्टि की मर्यादा से बाहर है। हम तो इतना ही निश्चित कर सकते हैं कि महावीर जैन विचारधारा के प्रवर्तक न थे, अपितु प्रचारक थे, उपदेशक थे, सुघारक थे, उद्धारक थे । जैन तत्त्वज्ञान को अच्छी तरह से समझने के लिये, यह आवश्यक है कि महावीर के जीवन के कुछ महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर विचार किया जाय । प्रत्येक महापुरुष अपने सिद्धान्त का व्यापक प्रचार करने के लिये दो प्रकार के कार्य अपने हाथ में लेता है। पहला कार्य यह है कि अपने सिद्धान्त से विपरीत जितनी भी मान्यताएं समाज में प्रचलित हों उनका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में खण्डन करना। यह निषेधात्मक कार्य है । दूसरा कार्य विधेयात्मक होता है, और वह है, अपने सिद्धान्तों का खुले रूप में प्रचार करना । महावीर के सामने भी ये दोनों प्रकार के कार्य थे । उन्होंने उस समय की सामाजिक कुरीतियां, धार्मिक अन्ध-भक्ति आदि पर कठोर प्रहार किया और साथ ही साथ लोगों को शान्ति एवं प्रेम का मार्ग बताया । महावीर ने जनता को शान्ति का जो सन्देश दिया, वह अपूर्ण अर्थात् किसी एक क्षेत्र तक ही सीमित न था। जीवन के जितने पक्ष थे, सब पर उसकी छाप थी। क्या सामाजिक, क्या आर्थिक, क्या दार्शनिक, क्या धार्मिक-सभी क्षेत्रों के लिए उनका एक ही सन्देश था और वह था शान्ति और प्रेम का, वह था सद्भावना एवं सामंजस्य का, वह था अहिंसा और अनेकान्त का। तत्कालीन मुख्य मुख्य समस्याओं पर इसका प्रयोग कैसे किया गया, इसे क्रमशः देखने का प्रयत्न करना ठीक होगा : सामाजिक परिस्थिति : महावीर के समय में सामाजिक विषमता काफी बढ़ी हुई थी, इसमें कोई संशय नहीं। वर्णभेद के नाम पर मनुष्य-समाज के अनेक खण्ड हो रहे थे। ये खण्ड केवल व्यवसाय या कर्म के क्षेत्र तक ही
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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