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________________ जैन-दर्शन और उसका अाधार १०३ अनेकान्त दृष्टि का प्राश्रय लेने से ही सभी वाद सुरक्षित रह सकते हैं । अनेकान्त के विना कोई भी वाद सुरक्षित नहीं । अनेकान्तवाद परस्पर-विरुद्ध प्रति भापित होने वाले सभी वादों का निर्दोप समन्वय कर देता है। उस समन्वय में सभी वादों को उचित स्थान प्राप्त हो जाता है। कोई भी वाद वहिप्कृत घोपित नहीं किया जाता । जिस प्रकार बेडले के 'सम्पूर्ण' (Whole) में सारे प्रतिभामों को अपना-अपना स्थान मिल जाता है उसी प्रकार अनेकान्तवाद में सारे एकान्तवाद समा जाते हैं। इससे यही फलित होता है कि एकान्त वाद तभी तक मिथ्या है जब तक कि वह निरपेक्ष है। मापेक्ष होने पर वही एकान्त सच्चा हो जाता हैसम्यक हो जाता है । सम्यक् एकान्त और मिथ्या एकान्त में यही भेद है कि सम्यक् एकांत सापेक्ष होता है जबकि मिथ्या एकांत निरपेक्ष होता है । नय में सम्यक् एकान्त अच्छी तरह रह सकते हैं । मिथ्या एकान्त दुनंय है-नयाभास है, इसीलिए वह झूठा है-असम्यक है। सिंहगरिंग: सिंहगगि ने नयचक पर १८००० दलोक की एक बृहस्काय टीका लिखी । इस टीका में सिंहगणि क्षमाश्रमण की प्रतिभा अच्छी तरह झलकती है । इसमें मिद्धसेन के ग्रन्थों के उदरगा हैं, किन्तु समन्तभद्र का कोई उल्लेख नहीं। इसी तरह दिङ्नाग और भर्तृहरि के कई उद्धरण हैं, किंतु धर्मकीर्ति के ग्रथ का कोई उद्धरगा नहीं। मल्लवादो और सिंहगरिण दोनों स्वेताग्वगचार्य थे। पात्रकेशरी: हनी नमय एक ते जन्वी प्राचार्य दिगम्बर परम्परा में हए जिनका नाम पानगरी था । उन्होंने प्रमागा-भास्त्र पर एक अन्य लिया जिसका नाम निलक्षा कादर्थन' है । जिस प्रकार मिनेन ने प्रमाग-मार पर न्यायावतार लिया उनी प्रकार पाकेगरी ने उपलर लिया। रम गन्ध में दिङ्नाग समथित हेतु के विलक्षण कान किया गया है। अन्यथानुपपत्ति ही हेतु का अव्यभिचारी नाम ना . यह बात पिलक्षगा कवर्धन में मिद की गई
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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