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________________ १०० जैन-दर्शन तीर्थकर की स्तुति में किसी न किसी दार्शनिकवाद का निर्देश करना वे नहीं भूले । स्वयम्भूस्तोत्र की तरह युक्त्यनुशासन भी एक उत्कृष्ट स्तुतिकाव्य है। इस काव्य में भी यही बात है। स्तुति के बहाने अन्य ऐकान्तिकवादों में दोष दिखाकर स्वसम्मत भगवान् के उपदेशों में गुणों के दर्शन कराना इस काव्य की विशेपता है । यह तो अयोगव्यवच्छेद हया । इसके अतिरिक्त भगवान् के उपदेशों में जो गुण हैं वे अन्य किसी के उपदेश में नहीं, यह लिखकर उन्होंने अन्ययोग-व्यवच्छेद के सिद्धान्त का भी प्रतिपादन किया। इन स्तोत्रों के अतिरिक्त उनकी एक कृति प्राप्तमीमांसा है। दार्शनिक दृष्टि से यह श्रेष्ठ कति है । अर्हन्त की स्तुति के प्रश्न को लेकर उन्होंने यह ग्रंथ प्रारम्भ किया। अर्हन्त की ही स्तुति क्यों करनी चाहिए। इस प्रश्न को सामने रखकर उन्होंने प्राप्तपुरुष की मीमांसा की है । प्राप्त कौन हो सकता है, इस प्रश्न को लेकर विविध प्रकार की मान्यताओं का विश्लेषण किया है। देवागमन, नभोयान, चामरादि विभूतियों की महत्ता की कसौटी का खण्डन करते हुए यह सिद्ध किया है कि ये बाह्य विभूतियाँ प्राप्तत्व की सूचक नहीं हैं । ये सब चीजें तो मायावी पुरुषों में भी दिखाई दे सकती हैं। इसी प्रकार शारीरिक ऋद्धियाँ भी प्राप्त पुरुष की महत्ता सिद्ध नहीं कर सकतीं । देवलोक में रहने वाले भी अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु वे हमारे लिये महान् नहीं हो सकते । इस प्रकार बाह्य प्रदर्शन का खण्डन करते हुये वे यहाँ तक पहुँचते हैं कि जो धर्म प्रवर्तक कहे जाते हैं जैसे बुद्ध, कपिल, गौतम, कणाद, जैमिनो आदि, क्या उन्हें आप्त माना जाय ? इसके उत्तर में वे कहते हैं कि आप्त वही हो सकता है जिसके सिद्धान्त दोषयुक्त न हों, विरुद्ध न हों। सभी धर्म-प्रवर्तक प्राप्त नहीं हो सकते क्योंकि उनके सिद्धान्त परस्पर-विरुद्ध हैं । किसी एक को ही प्राप्त मानना चाहिए।' १-तीर्थकृत्समयानां च, परस्परविरोधतः । सर्वेषामाप्तता नास्ति, कश्चिदेव भवेद् गुरुः ॥ -आप्तमीमांसा, का० ३।
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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