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________________ ६४ जैन-दर्शन विद्वानों ने हिन्दी तथा गुजराती आदि भाषाओं में तत्त्वार्थसूत्र पर सुन्दर विवेचन लिखे हैं। __ इस प्रकार तत्वार्थसूत्र के पास पहुँचते-पहुँचते हमारा 'पागम युग' समाप्त हो जाता है। इसके बाद 'पागम युग' के अनेक संस्कारों को लिए हए 'अनेकान्त-स्थापन-युग' आता है । इस युग में जैन-दर्शन का स्तर काफी ऊँचा उठ जाता है । अनेकान्त-स्थापना-युग : भारतीय दार्शनिक क्षेत्र में नागा जुन ने एक बहुत बड़ी हल-चल मचा दी थी। जब से नागार्जुन इस क्षेत्र में पाए, दार्शनिक वादविवादों को एक नया रूप प्राप्त हया । श्रद्धा के स्थान पर तर्क का साम्राज्य हो गया। पहले तर्क न था, ऐसी बात नहीं हैं। तक के होते हुए भी अधिक काम श्रद्धा से ही चल जाता था। यही कारण था कि दर्शन का व्यवस्थित प्राकार न बन पाया। नागार्जुन ने इस क्षेत्र में आकर एक क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिया। यह क्रान्ति बौद्ध-दर्शन तक ही सीमित न रही। इसका प्रभाव भारत के सभी दर्शनों पर बड़ा गहरा पड़ा । परिरणामस्वरूप जैन दर्शन भी उससे अछ्ता न रह सका। सिद्धसेन और समन्तभद्र जैसे महान् ताकिकों को पैदा करने का बहुत कुछ श्रेय नागाजुन को ही है। यह समय पाँचवीं-छठी शताब्दी का है । जैनाचायों ने इस युग में महावीर के समय से विखरे रूप में चले अाते हुए अनेकांतवाद को स्थिर और सुनिश्चित रूप प्रदान किया। इसलिए यह युग 'अनेकान्त-स्थापन युग' के नाम से पुकारा जा सकता है। इस युग म पाँच प्रसिद्ध जैनाचार्य हए हैं। सिद्धसेन और समन्तभद्र के अतिरिक्त मल्लवादी, सिंहगणि और पात्रकेसरी के नाम उल्लेखनीय हैं । सिद्धसेन: ____नागार्जुन ने शून्यवाद का समर्थन किया । शून्यवादियों के अनुसार तत्त्व न सत् है, न असत् है,न सदसत् है, न अनुभय। 'चतुष्कोटिविनिमुक्त' रूप से तत्त्व का वर्णन किया जा सकता है। विचार की चारों कोटिया तत्त्व को ग्रहण करने में असमर्थ हैं। विचार जिस चीज को ग्रहण करता
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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