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________________ ८ . जैन-दर्शन जैन-परम्परा की अपनी देन है, जो आज भी अधिकांश भारतीय जनता के जीवन में विद्यमान है। जैन-परम्परा के अनुयायी तो इससे पूरे-पूरे प्रभावित हैं ही, इसमें कोई संगय नहीं । अहिंसा को केन्द्र मानकर अमृपावाद, अरतेय, अमैथुन और अपरिग्रह का प्रादर्श सामने रखा गया। यथाशक्ति जीवन का स्वावलम्बी, सादा और सरल बनाने के लिए ही श्रमण-परम्परा ने इन सब बातों को अधिक महत्त्व दिया। असत्य का त्याग, अनधिकृत वस्तु का अग्रहण और संयम का परिपालन अहिसा का पूर्ण साधना के लिए अावश्यक हैं। साथ-ही साथ अपरिग्रह का जा आदर्श है, वह वहत ही महत्त्वपूर्ण है । परिग्रह के साथ यात्मविकास की घोर शत्रुता है । जहाँ परिग्रह रहता है वहाँ अात्मविकास नहा रह सकता । परिग्रह मनुष्य के प्रात्मपतन का बहत बड़ा कारण है। दूसरे शब्दों में परिग्रह पाप का वहत बड़ा संग्रह है । जितना अधिक परिग्रह बढता जाता है उतना ही अधिक पाप बढ़ता जाता है। मानव-समाज में वैषम्य उत्पन्न करने का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व परिग्रह-बुद्धि पर है। परिग्रह का दूसरा नाम ग्रन्थि भी है । जितना अधिक गाँठ बाँधी जाती है उतना ही अधिक परिग्रह बढ़ता है। किसी की गाँठ मन तक ही सीमित रहती है तो कोई बाह्य वस्तुमा की गाँठे वाँधता है। यह गाँठ जब तक नहीं खुलती तब तक विकास का द्वार बन्द रहता है। महावीर ने ग्रन्थिभेदन पर बहुत अधिक भार दिया। इसीलिए उनका नाम निर्ग्रन्थ पड़ गया और उनकी परम्परा भी निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुई। जैनपरम्परा को छोड़. अन्य किसी परम्परा को यह नाम नहीं दिया ‘गया। अपरिग्रह का मार्ग विश्वशान्ति का प्रशस्त मार्ग है। इस मार्ग का उल्लंघन करने वाला संसार को स्थायी शान्ति नहीं दे सकता । वह स्वयं पतनोन्मुख होता है, साथ ही साथ अन्य प्राणियों को भी अपदस्थ करता है-नीचे गिराता है । स्वाधीनता की रक्षा के लिए अपरिग्रह अत्यन्त आवश्यक है। . . ___आचार की इस भूमिका पर कर्मवाद का जन्म हो बाद का अर्थ है कार्य-कारणवाद । प्रत्येक . . .
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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