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________________ जैन-दर्शन और दूसरी ओर बुद्धि एवं तर्क-शक्ति के संतोष के लिए विचार का विकास होता है । श्रद्धालु व्यक्तियों की सन्तुष्टि के लिए प्राचार-मार्ग सहायक होता है, तथा चिन्तनशील व्यक्तियों की तृप्ति के लिए विचार-परम्परा का पूर्ण सहयोग मिलता है । जैन धर्म या जैन दर्शन : बौद्ध परम्परा में हीनयान और महायान के रूप में प्राचार और विचार की दो धाराएँ मिलती हैं । हीनयान मुख्यरूप से प्राचारपक्ष पर भार देता है । महायान का विचारपक्ष पर अधिक भार है। बौद्ध दर्शन में प्राण डालने का कार्य यदि किसी ने किया है तो महायान परम्परा ने ही। शून्यवाद-माध्यमिक तथा योगाचार विज्ञानाद्वैतवाद ने बौद्ध-विचारधारा को इतना दृढ़ एवं पुष्ट वना दिया कि आज भी दर्शन जगत् उसका लोहा मानता है। पूर्वमोमांसा और उत्तरमीमांसा के नाम से वेदान्त में भी यही हुमा । कई विद्वानों का यह विश्वास है कि मीमांसा और वेदान्त एक ही मान्यता के दो बाजू हैं। एक बाजू पूर्वमीमांसा (प्रचलित नाम मीमांसा) है और दूसरा बाजू उत्तरमीमांसा (वेदान्त) है। पूर्वमीमांसा प्राचार पक्ष है एवं उत्तरमीमांसा विचार पक्ष है। मीमांसासूत्र और वेदान्तसूत्र एक ही ग्रन्थ के दो विभाग हैं-दो अध्याय हैं। प्राचारपक्ष की स्थापना मीमांसासूत्र का विषय है। परन्तु वेदान्तसूत्र का प्रयोजन विचार पक्ष की सिद्धि है । सांख्य और योग भी विचार और प्राचार का प्रतिनिधित्व करते हैं। सांख्य का मुख्य प्रयोजन तत्त्वनिर्णय है । योग का मुख्य ध्येय चित्तवृत्ति का निरोध है-'योगश्चित्तवृत्ति-निरोधः' । इसी प्रकार जैन परम्परा भी प्राचार और विचार के भेद से दो भागों में विभाजित की जा सकती है । यद्यपि इस प्रकार के दो भेदों का स्पष्ट उल्लेख इस परम्परा में नहीं मिलता, तथापि यह निश्चित है कि प्राचार और विचार रूप.दोनों धाराएँ इसमें बराबर प्रवाहित होती रही हैं । प्राचार के नाम पर अहिंसा का जितना विकास जैन परम्परा में हुआ है, उतना भारतीय १. पातंजल योग दर्शन १, २
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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