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________________ (४९) रक्षा करवी. निश्चय उपर दृष्टि कायम राखी ए रीते व्यवहार साचवनार गृहस्थ बीजाथी निंदातो नथी, ज्यारे निराकार पदार्थमा पण चित्त स्थिर थाय त्यारे सिद्धन निरालंबन ध्यान करवू. ते साधवा माटे साधुओए अने गृहस्थ प्रमुखोए आत्मज्ञानमा प्रयत्न करवो. पूर्वे जे द्रव्य अने भाव ए प्रकारनो धर्म कहेवामां आव्यो ते सर्व निर्वाणधाम-( मोक्षरूप महेल) नी द्वारभूमि ( आंगणुं ) माप्त करवा माटे उत्तम यान ( वाहन ) समान छे अने आत्मज्ञान ए आंगणामां पहोंच्या पछी निर्वाणधामनी अंदर प्रवेश करवा माटे आंगणामांना पादविहार (पगे चालवा) सदृश महात्माओने शिवाल यमां अवस्थिति करी आपनार छे. अर्थात् आत्मज्ञान ए परमधर्म छे जे साधवाथी निति (मोक्ष) निश्चित थायछे. आत्मज्ञानमा ज्ञान दर्शन अने चारित्र प्रमुख सर्व गुणसमूह होयछे. आत्मज्ञान प्रकृष्टपणे जयवंत वर्तेछे केमके ज्ञानादि शुद्धि एमां अनंत थायछे. ते थवाथी अनंतचतुष्टय ( अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, • अनंत वीर्य अने अनंत सुख ) प्राप्त थायछे. जेम आकाशदर्शनयां तेम ए अनंतचतुष्टयनो पार पामवाने सर्वज्ञ विना कोई, ज्ञान सर्व प्रकारे शाश्वत समर्थ नथी. ... ........
SR No.010318
Book TitleJain Tattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Jain Sabha Bhavnagar
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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