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________________ (३) अनंतकाय अथवा साधारण वनस्पति छे. एमने निगोद एवी पण संज्ञा छे. पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय अने निगोद(साधा रण वनस्पतिकाय ) ए दरेकना सूक्ष्म अने वादर ( स्थूल ) एवा बे भेद छे. तेमां जे सूक्ष्म छे ते सर्व लोकाकाशमां व्यापी रहेला छे पण चर्मचक्षुथी जोइ शकाता नथी. बादर पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय अने वायुकायना असंख्य शरीरोनुं अने बादर निगोदना अनंत शरीरोनुं भेगुं पिंडन चर्मचक्षुथी जोइ शकायछे. पण प्रत्येक वनस्पतिना एक, बे आदि संख्यात अथवा असंख्यात शरीरोनुं पिंड नजरे पडी शकेछे. केवलज्ञानी सर्व जीवोने जोइ शकेछे. जीवो करतां कर्मों अनंत गुणां छे. ते सर्व लोकाकाशमां व्यापीने रहेलां छे. वधारे शुं ? जीवना एक एक प्रदेशमां शुभाशुभ कर्मनी अनंती वर्गणाओ ( समूहो) रहेली छे, जे सर्वज्ञथी जोइ शकायछे. जेम खाणमा रत्न सुर्वण इत्यादि मृत्तिकाथी व्याप्त ( आच्छादित ) होयछे तेम संसारी जीवो सर्व लोकाकाशमां निरंतर रहेला कर्मोथी आवृत ( आच्छादित ) होयछे. भिन्न जाति-( स्वभाव अथवा सत्ता) वाळां कर्मोनो अने आत्मानो योग केवी रीते थयो ? * जेवी रीते खाणमां पथ्थर-(मृत्तिका ?) नो अने तेमा रहेला सोनानो तथा अरणिना लाकडानो अने तेमां रहेला अग्निनो योग * निरंजन, निराकार, निर्गुण अने निष्क्रिय जगत्ना कर्ता परमेश्वरमा सगुणात्व अंतीन छे एटलेके कानो अने तेना सस्वादि। गुणोनो संबंध अनादिसिद्ध छे. कर्तृवादी.
SR No.010318
Book TitleJain Tattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Jain Sabha Bhavnagar
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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