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________________ जैनतत्त्वसार. ( अनुवाद.) पहेलो अधिकार, ' सिद्धांत जेनो संशुद्ध (दोषरहित ) छे अने ज्ञानादि अतिशयो वडे जे दीप्त छे एवा सत्य परमेश्वर श्रीवर्धमानस्वामीने प्रणिपात करीने स्व-(आत्म ) ज्ञानार्थे किंचित् विचार दर्शाएँछु. आत्मा केवो छ ? आत्मा नित्य, विभु, चेतनावान् अने अरूपी छे. नित्य, द्रव्य तरीके छे; पण पर्यायनी अपेक्षाए, देव मनुष्य नारक अथवा तिर्यच गतिमां परिणाम ( अवस्था ) बदलाया करेछे माटे, अनित्य पण छे. विभु एटले व्यापक अथवा सर्वत्र व्यापवानी सत्ता सहित छे पण सामान्यतः स्वशरीरमां ज व्यापी रहेछे. चेतना एटले सामान्य विशेष उपयोग, ते आवरणो-( गुणने आच्छादन करनारां कर्मों) ना क्षयादिना प्रमाणमां होयछे. अरूपी एटले रूप अथवा आकारआकृति के मूर्ति रहित छे. कर्मो, केवा छे ? कर्मो जड, रूपी अने पुद्गल छे. जड एटले चेतना रहित छे. रूपी एटले रूप सहित छे पण अतिसूक्ष्मताने लीधे ते चर्मचक्षयी जोइ शकाता नथी. पुद्गल एटले पुरण (पुराववाना अथवा भराववाना) अने गलन ( खरी जवाना ) स्वभाववालां छे,
SR No.010318
Book TitleJain Tattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Jain Sabha Bhavnagar
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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