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________________ ( ६६ ) 1 कोई साधु के आहार को अत्रत में कहते हैं यह भी एकांत पक्ष मिलना संभव नहीं है । क्योंकि साधु के अत्रत की क्रिया नहीं रहती है, साधु सर्ववती है वहां अत्रत कौनसा रहा? गुणस्थान में द्वादश अवत में से एक भी अत्रत नहीं है । श्री पन्नात्रणा सूत्र में अत्रत अपच्चक्खाण चतुर्थ गुणस्थान तक माना है आगे नहीं । इसी प्रकार श्री भगवती सूत्र के पहिले शतक के दूसरे उद्देश्य में तथा पनवणा सूत्र के सत्रहवें पद में तथा भगवती सूत्र के सोलहवें शतक के पहिले उद्देश में आहारिक निपजाता अविकरणी उसे 'पमाय पच्च' कहा तथा श्री भगवती सूत्र के तीसरे शतक के तीसरे उद्देश्य में साधु को प्रमाद के योग की क्रिया मानी है । फिर श्री सूयगढांग सूत्र के अठारहवें अध्याय में अत्रत 'पच्च वाले आहिज्जह' इत्यादि अत्रत मानने पर बालत्व अर्थात् अज्ञान अवस्था मानी जायगी परन्तु १३वे गुणस्थान पर्यंत बालपना ( अज्ञान अवस्था ) तो नहीं है, फिर सूयगडांग सूत्र के अठारहवें अध्याय में साधु को धर्म पक्ष में कहा है, पर मिश्र पक्ष में नहीं इसलिए साधु के आहार को अत्रत में नहीं कहा जा सकता । तथा कई एक साधु के आहार को प्रमाद में कहते हैं ऐसा कहना भी ठीक नहीं लगता हैं क्योंकि प्रमाद तो घट्ट गुणस्थान तक ही है ऊपर नहीं परन्तु आहार तो तेरहवें गुणस्थान
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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