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________________ (५२) पुण्य कहते हैं उनको इस प्रकार पूछना चाहिये कि 'बीतगग प्रभु ने समुच्चय अन्न पुण्य कहा है वहां पुन्य के भेद नहीं किये हैं. लेकिन विचारक व्यक्ति हृदय से विचार नहीं करे तो क्या पक्का हुआ देने से पुण्य है ? या अपक्व देने से पुण्य है ? अथवा सूझता देने से, या असूझता देने से कहां कहां पुण्य है ? इसके उत्तर में वे ऐमा कहे कि " भगवान ने समुच्चय जीवों की अपेक्षा पुण्य कहा है परन्तु वहां भेद नहीं किये हैं.जहां जहां भगवान नं पुण्य कहा है उन सब स्थानों में पुण्य है वहां पाप नहीं इसलिए पुण्य ही है । भगवन् ने अन्न पुण्य आदि कहा है परन्तु अन्न मिश्र आदि नहीं कहा तथा पाप भी नहीं कहा इमलिए पुण्य ही है उन्हें यो कहे कि भगवन् ने सावध करणी में एकान्त पुण्य कहा है परन्तु भेद (विगत ) नहीं करे तो 'लयण पुण्य' नया स्थान आरम्भ करके मिथ्यात्वी कर देवे उसे एकान्त पुण्य होवे ? वृक्ष काटकर सयन हेतु पाट पाटला आदि बनाकर देवे, वस्त्र धोकर देवे, रंग कर देवे, मन से आर्तध्यान ध्यावे वहां पुण्य किस प्रकार हो ? वचन से असत्य भाषण करे, काया से हिसा करे, मिथ्यात्वी को नमस्कार करे इन सब स्थानों पर पुण्य किस प्रकार कहा है ? यदि मन पुण्य से सर्वत्र पुण्य हो तो सब को अन्न देने से भी हो, और यदि मन
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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