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________________ (४६) उनराध्ययन सूत्र के नवमें अध्याय में न नीराजा ने कहा है धनोपकरण, चार आहार आदि एक सर्वथा सावध प्रवृत्ति के त्यागी माधु के दान को छोडकर दूसरे सब दान मावा है । सावध जानकर माधु ने छोड़ा है तथा हिंसादि प्रत्यक्ष जान पड़ते हैं अतः पाप भी है, इम वास्ते दोनों बात जानी जाती है तथा कोई इस प्रकार कहे कि धर्म अमत है तथा पाप जहर है, परन्तु दोनों के सम्मिलित खाने से मृत्यु होती है, उसी प्रकार पुण्य पाप करने से भी जानना चाहिये इस प्रकार कहने वाले के लिए उत्तर है कि यह दृष्टान्त अमत्य है, श्रावक मिश्र पक्ष में है वह डूवेगा फिर माधु को सकषायी कहा है, पाप के नाम से बुलाया वह किस प्रकार ड्वेगा ? इसलिए यह दृष्टान्त तो जहां एकान्त पाप का कार्य हो अल्प मात्रा पुण्य का मिश्रण हो वहां मिल सकता है पर सब स्थानों में नहीं मिल सकता है । अतः श्री भगवती सूत्र के ८३ शतक के छ8 उद्देश्य में माधु को अमूझता देने से पाप स्वल्प एवं निर्जरा अधिक कही है । इसलिए कई लोग इस पाठ को मिथ्या कहते हैं, अतः वे सिद्धान्त पाठ के उथापक होने के कारण निव हो सकते हैं. यहां कोई प्रश्न करे कि यह पाठ आचार्यों द्वारा प्रक्षेपित है अतः पाठ कैसे सत्य हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि यदि सूत्र में ऐमी शंका करे तो शंका
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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