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________________ (४७) कहने में क्यों मना करें ? फिर सतु आदि दान में हिमा आदि सावन कर्तव्य प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है अतः जैन धर्मानुयायी वहां एकान्त पुण्य किस प्रकार श्रद्ध सकता है । इस कारण से एकान्त पुण्य की स्थापना करना यह बात झूठी जान पड़ती है और यदि सभी दानों में पाप होता है तो पाप को पाप कहने में साधु को क्या दोष है ? और भगवान ने पाप कहने के लिये क्यों मना किया ? तथा जो दान देते है वहां दया प्रमुख शुभ भाव उत्पन्न होता दिखाई देता है एवं जो वस्तु देता है उससे लाय प्रधान है, वहां एकान्त पाप किस प्रकार होता है । श्री प्रश्न व्याकरण सूत्र के दूसरे आश्रय द्वार में दान का निषेध करे उसे झूठ बोलने वाला कैसे कहा १ फिर तीसरे संबर द्वार में दान की अंतराय देवे उसे चोरी करने वाला कैसे कहा ? इत्यादि कारणों से एकांत पाप की श्रद्धना करना सूत्र न्याय से मिथ्या असत्य लगता है और जो ऐसा कहे कि इसके फल की हमें खबर नहीं उनके हृदय में अंधकार दिखाई पड़ता है। जो इतनी बात नहीं समझ सकता वह चारित्र किस प्रकार पाजेगा ? तथा कोई इम प्रकार कहे कि साधु को तो मौन ही रहना युक्त है, पुण्य पाप मिश्र इत्यादि कुछ भी नहीं श्रद्धना योग्य है, ऐसे कहने वाला नास्तिकवादी दिखाई पड़ता है । भगवान ने तो सूत्र में कहा है कि जितनी क्रिया करे उन सबका फल
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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