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________________ ( ४४ ) कहते हो इसका क्या कारण ? यहां कोई इस प्रकार कहे कि 'देने वाले को तो पुण्य ही होता है परन्तु साधु को पुण्य कहना कल्पता नहीं इसलिए नहीं कहते ।' तो फिर उनसे यों पूछे कि यदि वीतराग देव को पुण्य कहना वल्पता है तो फिर साधु को क्यों नहीं ? पुण्य को पुण्य कहने की तो वीतराग देव की आज्ञा है तथा जो सत्चु काणविक दान में पुण्य कहने की भगवान की आज्ञा नहीं है और गृहस्थ के दान में एकान्त श्रद्धा तथा प्ररूपणा है वह भगवान की आज्ञा का विराधक है । स्वयं के कल्पित मतानुसार चलने वाले हैं। शंका- फिर सब जीवों की अपेक्षा नौ प्रकार का पुण्य एकान्त है । ऐसा कहने वाले से पूछना चाहिए कि पुण्य सावध करनी से होता है या निर्वद्य करनी से ? इसके लिए वे कहते हैं कि 'निर्वद्य करनी से पुन्य बन्धता है ।' प्रश्नः --- परन्तु जो सतु आदि गृहस्थ का दान सावद्य करणी है या निर्वद्य ? तब वह कहे कि सावद्य तब उन्हें ऐसा पूछें कि सावध करणी से एकान्त पुण्य होता है या पाप ! बुद्धिमान विचार कर निर्णय करें। यहां कोई इस प्रकार कहते हैं कि 'सावद्य तो पाप' इसलिए गृहस्थ के दान में सर्वथा पाप है परन्तु पुण्य तनिक भी पाप नहीं । एसा कहने वाले को कहना चाहिए कि एकान्त पाप को भी सावद्य कहा है एवं पुण्य पाप दोनों शामिल हो उनको
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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