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________________ ( ३३ ) इसलिये अपर्याप्ता में तो चार ही पर्याप्ति मिलती है । यहां कोई इस प्रकार कहते हैं कि-"देवता नारकी तो भाषा एवं मन साथ बांधते हैं और मनुष्य तिर्यंच तो पहिले भाषा और फिर मन पर्याप्ति बांधते हैं।" इस कारण से देवता नारकी में पांच पर्याप्ति कही है और मनुष्य तिर्यंच में छः पर्याप्ति कही है। यह कथन भ्रम और संदेह युक्त लगता है। यदि देवता नारकी भाषा, ‘मन साथ बांधते हैं तो फिर मनुष्य तियच के पृथक कैसे बंधती है ? यहां कोई इस प्रकार कहते हैं कि-"उनका ऐसा ही स्वभाव है।" तो उनसे कहिये कि अपर्याप्ता मनुष्य में दो योग नहीं कहे फिर भाषा में जीव के पांव भेद किस रीति से कहते हो ? वहां भाषा किस प्रकार नहीं गिनते ? श्री जीवाभिगम सूत्र में नारकी में छः पर्याप्ति कही है और मनुष्य में पांच कही है। यह सूत्र तो विरूद्ध कभी भी नहीं होता । परन्तु यहां इस प्रकार जानना चाहिए कि-'भाषा मन युगपत् । से समास होता है। इस कारण से जो पांच कही वह भी सत्य और छः कही वह भी सत्य । ये दोनों अपेक्षा सत्य है। यहां कोई इस प्रकार कहता है कि- "भाषा व मन साथ साथ समाप्त हो तो छः पर्याप्ति नहीं कहे, परन्तु पांच हो कहें।" जिसका उत्तर- "जिम कारण से असंज्ञी में भी पर्याप्ता कहा है। तो असंज्ञी मनुष्य में क्यों फेर पड़ा ? मन असंज्ञी नहीं मिले ? इस कारण से असंझी
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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