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________________ (१६६) करे, शिष्यादि का त्याग करे, ये सब धर्म के ही त्याग लगते हैं । इसका उत्तर संवर धर्म के त्याग किसी भी स्थान पर नही मिलते हैं, पर कर्तव्य में जितना योग व्यापार है, उसे हेय पदार्थ जानकर त्यागते हैं । फिर साधुपन लेते समय जितने कर्मों का त्याग किया वे सब सावध हैं । साधु नहीं करते हैं वे सब सावध कार्य है, इनमें से कई कार्यों में तो एकांत पाप है, कई कार्यों में पाप का मिश्रण है, पुण्य पाप दोनों उत्पन्न होते हैं, परन्तु निर्बंध कार्यो का त्याग नहीं किया है । फिर साधुपेन में जो जो कार्य सेवन करे, वे सब निर्वद्य है, तथा साधुपन लेनें के पश्चात् उसमें के कार्य व्यवहार नय में उपादेय जान कर ग्रहण करते हैं । निश्चय नय में इनमें से जितने आंव के कर्तव्य है, उन्हें निश्चय हेय जानकर छोड़े । इसलिये आश्रव के दो भेद किये हैं ५ । संवर ग्रहण करने योग्य है, उपादेय है यद्यपि मुक्ति जाने पर क्रिया रूप मंबर छूट जाता है । तथापि निश्चय संवर समकितादि तो सिद्धा में भी है । वह कभी नहीं छूटता है | परन्तु व्यवहारहैं । यह व्यवहार कर्मवंत के होता है । श्री आचाछूटता रांग सूत्र में. " अम्मस्त बबहारो न विज्जइ । " कर्म बिना व्यवहार नहीं होता है । इस न्याय से पहिले गुण स्थान से लेकर ऊपर ऊपर चढ़ते व्यवहार घटता है, निश्चय " ז
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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