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________________ (१७८) मिथ्यात्वादि अशुभ आश्रव, पाप की करणी करने से आश्रव, पाप, बंध ये तीनों उत्पन्न होते हैं, शुभ योगादि पुण्य की करणी करने से पुण्य उत्पन्न होता है । शुभ कर्म आते व बांधते भी हैं, पुराने कर्मों को निर्जरते हैं अतः पुण्य, पाप, आश्रव, बंध तथा निर्जरा उत्पन्न होते हैं । समकित आदि संबर की करणी निवृत्ति भाव से आते हुए कम रोकने से संवर उत्पन्न होता है, तथा अपेक्षा से पुण्य पाप, आश्रव, बंध की निर्जरा होवे । इसलिये श्री उत्तराध्ययन सूत्र के उनतीसवें अध्याय के ६७वें बोल में कहा है " कोह विजएणं खंति जणयइ, कोह वेयणिज्ज कम्म न बंधइ, पुव्वं बद्धं च निज्जरेई । इति वचनात् ।” इसका परमार्थ क्रोध जीता, संवर से कर्म रोके तथा क्षमा करने में, शुभ मन करने में शुभ मन आदि योग प्रवर्ताये, ऐ जीव ! तेरे संचित कर्म है, तो तूं समभाव से सहन कर इत्यादि योग वर्ते । जिससे पुराने कमों की निर्जरा होवे तथा नये शुभ आये एवं बांधे अतः पुण्य भी उत्पन्न होवे ! क्योंकि श्री संथारापयन्ना में कहा है कि आश्रव, संवर, निजरा ये तीनों सम्मिलित होने पर तीर्थ कहलाते हैं, इसलिये संथारा आदि करते हुये योग रोके, जिससे खाने आदि के कर्म भी रुके, नये शुभ कर्म आवे, जिनसे देवगति तथा तीर्थकर आदि प्रकृति का बंध भी होता है । पुराने अशुभ कर्म क्षय
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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