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________________ (१५७) निषेध अल्पार्थ का द्योतक है, जैसे पतले पेट की उणोदरी के न्याय, तथा चट्टा अचेलका परिषह । वैसे अल्प के लिए विवक्षा नहीं की परन्तु लेश्या है । जैसे झालर प्रमुख वार्दित्र के बजाये बिना शब्द नहीं होते, परन्तु झालर के डण्डा लगने के पश्चात रणकार ध्वनि रहती है । वैसे ही योग रूप डण्डा लग तो गया परन्तु उसका रणकार रह गया, इसलिये मानना | श्री भगवती सूत्र के छब्बीसवें शतक के पहले उद्देश्य में वेदनी कर्म के संयोगी में दो भांगे बताये हैं । सलेशी में तीन बताये हैं, वहां चौथा भांगा धान बंधता है और न बंधेगा | यह भांगा चौदहवें गुणस्थान के पहले समय में मिलता है । यहां योग में तथा लेश्या में अन्तर बताया है । दूसरे सब सूत्रों में तो सयोगी तथा सलेशी को एक समान कहा है, किसी भी स्थान में अन्तर नहीं बताया है, एक यहां अन्तर पड़ा है । इमलिये अल्प होने से लेश्या नहीं मानी तथा बंधी हुई की अपेक्षा चौदहवें गुणस्थान के पहिले समय में लेश्या रूप आश्रय है । कर्म ग्रहण करने रूप नहीं । शरीर चौदहवें गुणस्थान तक है । श्री उत्तराध्ययन सूत्र के उन्नीसवें अध्याय में शरीर पच्चख्ययी सिद्ध गुण कहा है, इस अपेक्षा से ग्रंथ में चौदहवें गुणस्थान में शरीर नहीं माना है, अयोगीपन होने से शरीर का व्यापार नहीं हैं । 1
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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