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________________ (१३८) आश्रव जीव को मलीन करता है, निश्चय में हेय पदार्थ है, छोड़ने योग्य है, वह कर्म का कर्ता है, कर्म परिणाम है इसलिए जीव का निज गुण नहीं परगुण है, इसलिये रूपी कहना चाहिये । पुनः अठारह पापों का क्षय कर्ता है, परन्तु आश्रव का तथा अरूपी पदार्थ का कभी क्षय नहीं होता । क्षय तो रूपी का ही होता है । इसलिये आश्रव रूपी ही है, फिर निश्चय नय में तो मोहनी कर्म की प्रकृति के परमाणु बांधे हैं, कर्म को ग्रहण करते हैं, कर्म का कर्ता आव है, फिर अठारह पाप जीव के साथ आते हैं, अठारह पाप का त्याग जीव के साथ नहीं आवे । श्री भगवती सूत्र के तेरहवें शतक के सावने उद्देश्य में "नौ आया भणे अन्नेमणे रुवीमणे नौ अरुवीमणे' ऐसी भाषा कही । फिर श्री पन्नवणा सूत्र के ग्यारहवें पद में भाषा के द्रव्य चौस्पर्शी है । भाषा मन की वर्गणा श्री भगवती सूत्र के बारहवें शतक के चौथे उद्देश्य में कही, इसलिये निश्चय तो आश्रव भी रूपी है तथा अठारह पाप का त्याग आदि ये संबर है, इसलिये अरूपी है, परंतु संवर, निर्जरा, मोक्ष तीनों का निश्चय से जीव को शुद्ध करने का स्वभाव इन है, इसलिये जीव के निज गुण है, इसलिए अरूपी कहा, फिर जीव द्रव्य को तो स्थान स्थान पर अरूपी कहा है तथा अजीव के दस भेद अरूपी है, चार रूपी है, उसमें
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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