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________________ (११३) जीव को पाप नहीं लगता है ऐसा कहने वाले दुर्वचन के बोलने वाले दुष्ट परिणाम के स्वामी है, यदि ऐसा हो तब तो जप, तप, क्रिया सभी निर्थक हो जाती है,किन्तु ऐसा नहीं है निर्जरा शुभ परिणाम से होती है । भोग तो बंध के हेतु हैं, लेकिन समकित के कारण तीव्र बंध नहीं पड़ते । श्री आचारांग सूत्र के पहिले श्रतस्कन्ध के तीसरे अध्याय में ‘समदिट्ठी न करेह पावं' कहा है जिसका कोई ऐसा अर्थ करते हैं कि समकित इष्टि को पाप नहीं लगता, यह बात एकान्त दुर्नय की स्थापना है। क्योंकि श्री भगवती सूत्र के छब्बीसवें शतक के सत्ताइमवें उद्देश्य में कहा है कि नव में गुणस्थान तक पाप लगता है। पाप के बंध की अपेक्षा समकित दृष्टि के बंध के कारण के चार चार भांगे मिलते हैं, इसलिए सरागी को पाप तो समय समय पर लगता है वीतरागी को नहीं लगता है तथा इस पद में तो गुरु शिष्य को उपदेश देते हैं कि हे ! शिष्य जन्म मरण और जरावस्था के दुख देखकर समकित दृष्टि पाप नहीं करते हैं, इस प्रकार यह उपदेश वचन है तथा दूसरा अर्थ 'पर मंति बच्चा' परम मुक्ति का कारण जानकर मुक्ति निमित्त समदृष्टि पाप नहीं करते हैं। फिर तीसरा अर्थ समकित दृष्टि होने के पश्चात् संसार में १५ भव करे अधिक नहीं करे । क्योंकि समकित दृष्टि होने पर तीव्र
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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