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________________ (६) ममता मिटाई उसे व्रत कहते हैं, निन्द्रा आदि विकथा आलस्य से निवृत होना और चित्त में उद्यम व उत्साह रखना यह अप्रमाद कहलाता है चार कषाय तथा नौ नौ कपाय को जीतना हर्ष, उत्साह शोक रहित तृण के समान किया लोष्टवत् कांचन; रशा तुल्य चन्दन से वीतराग पणा रूप अकपाय संवर कहलाते हैं। चार कपाय और मन, वचन, काया के अशुभ योग निवृत होना एवं शुभ योग की प्रवृति करना यह योग संवर कहलाता है । यह तो व्यवहार नय की अपेक्षा से कहा है । निश्चय नय में तो शुभ अशुभ दोनों योग आश्रव कहलाते हैं अशुभ योग से अशुभ कर्म ग्रहण करता है, शुभ योग से शुभ कर्म ग्रहण करता है । योग का स्वभाव तो कर्म ग्रहण करने का है। इसलिये योग तो आश्रव है, अतः सर्व योग से निवृत्ति पाना शैलेशी बनना, अयोगी अवस्था में रहना, इसे अयोग संवर कहते हैं । सर्व संवर का स्वामी चौदहवें गुणस्थान में है । तेरहवां गुणस्थान पर्यन्त सर्वथा संवर नहीं है ऐसे पांच भेद कहे हैं - हिंसा आदि पांच आश्रव से निर्वचना संवर है पांच इन्द्रिय, तीन योग इन आठों का निरोध करना भंडोपगरण सुचि कुसग की प्रवति नहीं करना बावीस परिषहों को जीतना, पांच समिति, तीन गुप्ति, दस प्रकार का यति धर्म, बारह भावना; पांच चारित्र इत्यादि संबर · 1
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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