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________________ ( ६४ ) उपयोग में नहीं आया हो तब तक नहीं कल्पता पुरुषान्तर होने के बाद कल्पता है, इस प्रकार साधु अनुमोदना नहीं करे तो माधु को दोष नहीं लगता है । ऐसा कदाचित् स्थानाभाव से मन झेलकर बसे तो न्यूनता लगेगी, परन्तु साधु पणा भंग हो ऐसी भाषा नहीं बोले । फिर कोई उपकरण की अपेक्षा कहे तो जितने भगवान की आज्ञा उपरांत रखेंगे तथा उनकी प्रतिलेखना आदि नहीं करेंगे तथा कम ज्यादा करेंगे वह सब न्यूनता का कारण है परन्तु इन बातों से मूलव्रत भंग नहीं होता, कई स्थानों पर नित्य धोरण (जल) लेना पड़ता है, वह भी न्यूनता में है परन्तु आहार बराबर अर्थात् दोष रहित लेने वाले को अनाचारी कहे यह ठीक नहीं आहार एवं धोरण समान कैसे हो सकते हैं ? आहार स्वयं अपने हाथ से नहीं लेते हैं परन्तु धोरण आज्ञा लेकर लेते हैं, आहार करने पर उपवास नहीं होता है पर धोवण पीने से उपवास होता है धोवण परठने योग्य माना गया है इसलिए विशेष दोप नहीं. परन्तु कमी को कमी नहीं माने तब तो बहुत दोप लगता है कई एक स्वयं तो करते हैं, परन्तु उसमें कमी नहीं समझे किन्तु दूसरे करते हों उसकी निन्दा करते हैं वे एकान्त गलत प्ररूपणा करने वाले निन्दक एवं निह्नव होते हैं इत्यादि प्रकार से अतिचार के अनेक स्थान हैं, जिन्हें
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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