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________________ आगे कहे जाने वाले शुक्लघ्यानके भेदोंमेंसे आदिके दो शुक्लध्यान पूर्वोको जाननेवालों के होते हैं, श्रुतकेवली के होते हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । सूत्रमें आये हुये "च'- शब्द से धर्म्यध्यान का भी समुच्चय हो जाता है । उसमें भी व्याख्यानसे विशेषता का ज्ञान होता है, इसलिए दोनों श्रेणियों के पहले धर्मध्यान होता है और दोनों श्रेणियों मे शुक्लध्यान होता है, प्रकृत में ऐसा समझना चाहिये। . ___ इससे स्पष्ट होता है कि दशवें गुणस्थानं तक जो धर्म्यध्यान कहा गया है, वह मात्र संज्वलन कपाय के सद्भाव की मुख्यता से ही कहा गया है, आत्माश्रित उपयोग की मुख्यता से नहीं। इसी लक्ष्य को स्पष्ट करते हुए अनगारधर्मामृत अ.। श्लोक ११० की स्वोपज्ञा भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका में लिखा है ____ अत्र च शुद्धनिश्चये शुद्धबुद्ध कस्वभावो निजात्मा ध्येयस्तिष्ठतीति शुद्धध्येयत्वाच्छुद्धावलम्बनत्वाच्छुद्धात्मस्वरूपसाधकत्वाच्च शुद्धोपयोगो घटते । स च भावसंवर इत्युच्यते।। ___ और यहां पर शुद्धनिश्चयनय में शुद्धबुद्ध एकस्वभाव निजात्मा ध्येय निश्चित होता है, इसलिये शुद्धध्येय होने से, शुद्ध आत्मा का अवलम्बन होने से और शुद्ध आत्मस्वरूप का साधक होने से शुद्धोपयोग वन जाता है । वह भाव संवर कहा जाता है। इस प्रकार आगम की साक्षीपूर्वक इतने विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सातवें से दसवें गुणस्थान तक जो समीक्षक उत्तरोत्तर मन्द, मन्दतर और मन्दतम पापाचरण की कपोल कल्पना की है, वह मिथ्या कथन होने के सिवाय और कुछ भी नहीं है। __आगम में श्रावक की ग्यारह प्रतिमा कही गयी हैं, उनमें आठवीं प्रतिमा का नाम आरम्भ त्याग प्रतिमा है । इससे ही यह स्पष्ट हो जाता है कि आठवीं .प्रतिमा को स्वीकार करते समय ही जव समस्त.प्रकार के प्रारम्भ का बुद्धिपूर्वक त्याग कर देता है, ऐसी अवस्था में पूर्ण महाव्रत आदि २८ मूलगुणों को गुरुसाक्षी पूर्वक स्वीकार करने वाले पूर्ण संयमी श्रमण (मुनि) जव किसी भी प्रकार का आरम्भ सम्भव ही नहीं होता फिर ध्यानी मुनि के ७ गुणस्थान से लेकर १०वें गुणस्थान तक किसी भी प्रकार के प्रारम्भ की उसमें भी पापाचरणरूप आरम्भ की सम्भावना कैसे की जा सकती है, अर्थात् कभी भी नहीं की जा सकती है। __ आगे पृष्ठ ३२० (वरया) में मीमांसक ने ७वें गुणस्थान से १०वें गुणस्थान तक धर्माचरणरूप धर्म्यध्यान को मानकर पृष्ठ ३०७ (वरैया) में प्रतिपादित अपने मत के विरुद्ध विचार व्यक्त किया है सो उससे ऐसा प्रतीत होता है कि उसे ही स्वयं यह खबर नहीं कि पहले हम क्या लिख आये हैं और अब क्या लिख रहे हैं । वस्तुतः ७वें गुणस्थान से लेकर पापाचरण की बात तो छोड़िये प्रवृत्तिरूप धर्माचरण की सम्भावना ही नहीं है। वहां से लेकर तो आत्मा को मुख्यकर अन्य सब विकल्पों के निरोधस्वरूप ध्यान की ही मुख्यता रहती है। "एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्" ध्यान . का लक्षण भी यही है । विशेष खुलासा हम पिछली शंका का उत्तर लिखते समय कर ही आये हैं। पृष्ठ २२५ (वरैया) में मीमांसक ने जो उपचरित कथन के सम्बन्ध में हमारा अभिप्राय लिखकर उसकी सार्थकताका समर्थन किया है सो इस सम्बन्ध में मीमांसक को यह अच्छी तरह से
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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