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________________ २१ वह मंगलाचरण इस प्रकार है :-. करि प्रणाम जिनेदेवको मोक्षमार्ग-अनुरूप । विविध अर्थ गभित महा कहिये तस्वस्वरूप ।। फिर भी मीमांसकके इस मत से हम सहमत हैं कि चाहे लौकिक प्रयोजन होया पारमार्थिक उन दोनोंमें निमित्त-नमित्तकभावका कथन आगम सम्मत है। इतना अवश्य हैं कि लौकिक प्रयोजन में जहां संसारी प्राणी निमित्त को प्रधानता देकर उसी में कर्तृत्व का आरोप करके लौकिक प्रयोजन की सिद्धि मानता है, वहां परमार्थको जानकर पुरुष या उस पर आरूढ़ होनेवाला पुरुष अपने निज पुरुपार्थ को उजागर करके स्वयंके बल पर प्रात्मकार्य की सिद्धि करता है, उसकी दृष्टि में बाह्य पदार्थ में निमित्तताका व्यवहार गौण रहता है। जैसाकि तीर्थंकर वासपूज्य भगवान की स्तुति के प्रसंग में स्वत्रभूस्तयं में प्राचार्य समन्तभद्रने कहा भी है - यवस्तु बाह्य गुणदोपसूतेनिमित्तमभ्यन्तरमूलहेतोः । अध्यात्मवृत्तस्य तदंगभूतमभ्यन्तरं केवलमप्यलं ते ।। ५६ ।। अभ्यन्तर जिसका मूल हेतु है, उसकी उत्पत्ति में जो बाह्य हेतु निमित्त है, अध्यात्मवृत्ति अर्थात् मोक्षमार्गी के लिए वह गौण है, क्योंकि आपके मत में मात्र अंतरंग कारण ही उसके लिए पर्याप्त है। .: यह संसाररूप कार्य और मोक्षकार्य की आगम सिद्ध व्यवस्था है। इसमें कार्य कारण भाव का कहाँ निषेध होता है ? मात्र कहाँ कौन गौण है और कौन मुख्य है, इसके विचारपूर्वक ही साधक या अन्य व्यक्ति इष्ट कार्य की सिद्धि में प्रवृत्त होता है। पृष्ठ २९७ (वरैया) में मीमांसकने जो निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति व्यवहार रत्नत्रय के आधार पर मानी है, सो उसका ऐसा लिखना आगम सम्मत नहीं है, क्योंकि व्यवहार रत्नत्रय पराश्रितभाव होने से उसके आधार परं परमार्थसे निश्चय 'रत्नत्रयकी प्राप्ति होना संभव नहीं है । इतना अवश्य है कि दृष्टि में स्वभाव के अवलम्बन पूर्वक जिस समय निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति होती है उसी समय चरणानुयोग के अनुसार होने वाला समस्त बाह्य याचार सम्यक्पने को प्राप्त होकर व्यवहार रत्नत्रय कहलाने लगता है । आगममें व्यवहार रत्तत्रय को साधक कहा है, वह मात्र उपचार से ही कहा है। ... .. पृष्ठ ३०१ (वरया) में मीमांकने जो व्यवहार सम्यग्दर्शन और निश्चय सम्यग्दर्शन का स्वरूप लिखा है वह भी संशोधनीय जान पड़ता है, क्योंकि परद्रव्य और परद्रव्योंके निमित्त से होनेवाले भावोंसे भिन्न, स्वभावरूप आत्माके अनुभवपूर्वक जो आत्माश्रित श्रद्धा होती है वह निश्चय सम्यग्दर्शन है। और इसके साथ परमार्थ स्वरूप देव, गुरु, शास्त्र और जीवादि तत्वों की जो श्रद्धा होती है, वह व्यवहार सम्यग्दर्शन है। __ पृष्ठ ३०७ (वरैया) में मीमांसक ने जो शुभयोग और अशुभयोग का लक्षण लिखा है, उसके लिए उसे सर्वार्थसिद्ध अ० ७ सूत्र ३ पर दृष्टिपात करना चाहिए। वहां शुभयोग और अशुभयोग का लक्षण करते हुये लिखा है शुभपरिणामनिवृत्तः योगः शुभयोगः, -अशुभपरिणामनिवृत्तः योग: अशुभयोगः ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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