SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ के आधार पर कर्मरूप उपाधिसे रहित सम्यग्दर्शनादिरूप जितनी भी पर्यायें होती हैं, वे सब पर निरपेक्ष स्वभाव पर्याय कही गयी हैं। __ इनके सिवाय ऐसी कोई अन्य पड्गुणहानिवृद्धिरूप पर्यायें नहीं हैं जो आगममें केवल स्वप्रत्यय पर्याय मानी गयी हों और न ही आगममें मोक्षरूप पर्यायको स्व-पर प्रत्यय स्वीकार किया गया है। __ साथ ही मीमांसकने जो नाना 'क्षणवर्ती' स्व-पर प्रत्यय परिणमनका उल्लेख किया है, वह भी यथार्थ नहीं है क्योंकि जो भी व्यंजन पर्यायरूप और अर्थपर्यायरूप परिणमन होता है, वह एक समयवर्ती अर्थात् समय-समयमें अन्य-अन्य ही होता है। सदृश परिणमन होने के कारण किसी पर्यायको व्यवहारनयसे अनेक क्षणवर्ती कहा जावे - यह अन्य बात है। जो भी वस्तु है, वह पर्याय की अपेक्षा समय-समय में अन्य-अन्य.ही होती है :- यह अवाधित सिद्धान्त है। __ अ. ५ सू. ७ की सर्वार्थसिद्धि टीकामें उत्पाद के दो भेद किये गये हैं-एक स्वप्रत्यय उत्पाद और दूसरा परप्रत्यय उत्पाद । इनका विवेचन करते हुये वहां लिखा है - पागमको प्रमाणता से जाननेमें आने वाले तथा षड्गुणी हानि और वृद्धि के द्वारा प्रवृत्त होने वाले अनंत अगुरुलयु गुणों का स्वभावसे उत्पाद और व्यय होता है तथा घोड़े आदि की गति स्थिति और अवगाहन में हेतु होनेसे क्षण-क्षण में उनमें भेद पड़ने के कारण उनका हेतु भी अन्य-अन्य होता है - इस प्रकार परसापेक्ष भी उनमें उत्पाद और व्ययका व्यवहार किया जाता है, वह उद्धरण इस प्रकार है : द्विविध उत्पादः स्वनिमित्तः परप्रत्ययश्च । स्वनिमित्तस्तावदनन्तानामगुरुलघुगुणानामागम प्रामाण्यादभ्युपगम्यमानानां षट्स्थानपतितया वृद्धयाहान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेतेषामुत्पादोव्ययश्च ।। परप्रत्ययोऽपि अश्वादिगतिस्थित्यवगाहनहेतुत्वात्क्षणे क्षणे तेपां भेदात्तद्धतुत्वमपि भिन्नमिति परप्रत्ययापेक्ष उत्पादो विनाशश्च व्यवहि यते ।। अतः यह प्रकरण धर्मादिक तीन द्रव्यों का है और धर्मादिक तीन द्रव्योंकी स्वप्रत्यय स्वभाव पर्याप्त होनेका नियम है, यहां जो षड्गुणहानिवृद्धिरूप स्वप्रत्यय कही गयी है वह धर्मादिक तीन द्रव्यों की उसी तरह की स्वप्रत्यय स्वभाव पर्याय जाननी चाहिये जैसी कि जीव द्रव्यकी संवर, निर्जरा और मोक्षरूप स्वप्रत्यय स्वभाव पर्याय होती है तथा.जिस प्रकार जीवकी इन तीनों प्रकारको पर्यायोंको उपशम और क्षय निमित्तक कहा जाता है। उसी प्रकार प्रकृतमें अश्वादिकी गति, स्थिति और अवगाहनके निमित्तसे धर्मादिक तीन द्रव्यों की पर्याय भी परप्रत्यय कही गयी है । इसप्रकार इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वप्रत्यय स्वभाव पर्याय को छोड़कर छहों द्रव्योंमें अनन्त अगुरुलघुगुण निमित्तक पडगुणिहानिवृद्धिरूप अन्य कोई स्वतन्त्र स्वभाव पर्यायके अतिरिक्त स्वप्रत्यय पर्याय नहीं पायी जाती और न ही जीव. की संवर, निर्जरा और मोक्षरूप परमार्थसे स्व-पर प्रत्यय पर्याय ही होती है । इतना अवश्य है कि जब यह जीव त्रिकाली स्वाभावके सन्मुख होकर अपने आत्मिक पुरुषार्थ के बल पर संवर, निर्जरा और मोक्षरूप स्वप्रत्यय स्वभाव पर्यायको उत्पन्न करता है, तब उन पर्यायोंमें, कर्मोके उपगम या क्षयसे हुई है-ऐसा व्यवहार (उपचार) हो जाता है । प्रकृत में यहां अगुरुलघुगुणका अर्थ अविभाग प्रतिच्छेद है । इसके लिए देखो-पंचास्तिकाय गाथा ८४ की समयव्याख्या टीका उसमें लिखा है
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy