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________________ ६ कर जीव स्वयं नियम से विकार करता है और कर्मोदय तथा अन्य कोई पदार्थ उसमें निमित्त होता है । यही कारण है कि हमें विवश होकर उस एकांगी शंका का उक्त समाधान करने के लिए उस रूप में बाध्य होना पड़ा था । यद्यपि हमने समयसार की ८० से ८२ तक की तीन गाथायें शंकाकार पक्ष के सामने इसलिये उपस्थित की थीं कि उनको ध्यान में लेकर शंकाकार हमारे समाधान के आशय को स्वीकार कर लेगा और इस शंका को आगे नहीं बढ़ायेगा । अन्त में समीक्षक से हमें इतना हो निवेदन करना है कि हमें दी गयी सलाह को वे अपने तक ही सीमित रहने दें । (अ) समीक्षा ४ पृ० ४ में समीक्षक ने जो यह लिखा है कि "जहां उत्तरपक्ष व्यवहारनय के विषय को सर्वथा प्रभूतार्थ मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उसे कथंचित् भूतार्थं श्रोर कथंचित् प्रभूतार्थं मानता है ।" इतना लिखने के बाद वह यह भी लिखता है कि "परन्तु वह प्रकृत प्रश्न के विषयसे भिन्न होनेके कारण उस पर स्वतंत्र रूपसे विचार करना संगत होगा श्रतएव इस पर यथा अवसर विचार किया जायेगा ।" (समीक्षा ४ पृ० ४) ( श्रा) श्रागे पृष्ठ ५ में समीक्षक ने यह भी लिखा है कि "परन्तु जहाँ उत्तरपक्षने उसी कार्यके प्रति निमित्त कारण प्रयथार्थ कारण और उपचरित कर्तारूप से स्वीकृत उदय पर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्मको उस कार्य रूप परिणत न होने और संसारी प्रात्माकी उस कार्यरूप परिणति में सहायक भी न होनेके आधार पर प्रभूतार्थं श्रीर संसारी श्रात्माकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने के धार पर भूतार्थं मानता है ।" (इ) श्रागे इसी पृष्ठ में वह पुनः लिखता है कि "परन्तु जहाँ उत्तर पक्ष उसी कार्यके प्रति निमित्त कारण, यथार्थकारण और उपचरितकर्तारूपसे स्वीकृत उदयपर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्मको उसे कार्यरूप परिणत न होने श्रीर संसारी ग्रात्माकी उस कार्यरूप परिणति में सहायक भी न होने के श्राधार पर सर्वथा श्रभूतार्थ मानकरं व्यवहारनयका विषय मानता है, वहाँ पूर्वपक्ष उसे वहां पर उस कार्यरूप परिणत न होनेके प्राधार पर अभूतार्थ श्रीर संसारी श्रात्माकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके श्राधार पर भूतार्थं मानकर व्यवहारनयका विषय मानता है ।" (ई) श्रागे पुनः वह इसी पृष्ठ में लिखता है कि "दोनों पक्षोंके मध्य विवाद केवल उक्त कार्यके प्रति उदयपर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्मको उत्तरपक्ष को मान्य सर्वथा अकिंचित्करता और सर्वथा अभूतार्थता तथा पूर्व पक्षको मान्य कथंचित् श्रकिंचित्करता व कथंचित् कार्यकारिता तथा कथंचित् प्रभूतार्थता व कथंचित् भूतार्थताके विषय में हैं " (उ) आगे वह पृष्ठ ४ में ही पुनः लिखता है कि "उपर्युक्त विवेचनके आधार पर दो बातें विचारणीय हो जाती हैं। एक तो यह कि संसारी श्रात्मा के विकारभावं और चतुर्गतिभ्रमरणमें दोनों पक्षों द्वारा निमित्तकारणरूप से स्वीकृत उदय पर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्मको पूर्वपक्षको मान्यता के अनुसार उस कार्यरूप परिणत न होने के आधार पर अकिंचित्कर और उपादान कारणभूत संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणति में सहायक होने के प्राधार पर कार्यकारी माना जाय या उत्तरपक्ष की मान्यता के अनुसार उसे वहाँ पर उस कार्यरूप परिणत न होने और उपादान कारणभूत संमारी श्रात्मा की कार्यरूप परिणतिमें सहायक भी न होनेके आधार पर सर्वथा ग्रकिंचित्कर माना जाय
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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