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________________ २०] -- यहां एक प्रश्न अवश्य ही विचारणीय रह जाता है कि यदि ऐसा है तो मोक्षपर्याय को भी उभयनिमित्तक स्वीकार करना चाहिये । जैसा कि व्याकरणाचार्य जी का मत है । देखो ( स. पू. 26 ) सो इसका समाधान यह है कि निमित्त दो प्रकार के होते हैं - सामान्य निमित्त और विशेष निमित्त । जिस पर्याय का विशेष निमित्त हो उसे स्वपर प्रत्यय पर्याय कहते हैं । जैसे- जीव की कर्मों के उदय और उदीरणा को निमित्त कर होनेवाली पर्याय । मौर जिस पर्याय के होने में विशेष निमित्त या निमित्तों का प्रभाव हो उसे स्वप्रत्यय पर्याय कहते हैं। जैसा कि नियमसार गा. 14 और उसकी टीका से स्पष्ट है। जितने भी कर्मों के क्षय आदि से जीव के भाव होते हैं उन्हें आगम मे स्वप्रत्यय इसीलिये स्वीकार किया गया है । इतना ही नहीं, वे सब भाव पर की अपेक्षा किये बिना बुद्धि में जायकस्वभावरूप आत्मा को दृष्टिपथ में लेने से ही होते हैं । इसीलिये ऐसी पर्यायों को स्वभाव पर्याय भी कहते हैं। विशेष विचार श्रागम से जानकर कर लेना चाहिये । श्रागम साधुत्रों के लिये जब चक्षु है तो हमें तो है ही । इसप्रकार उपादान उपादेय के सम्बन्ध में विचार किया । विशेष विचार समीक्षा के समाधान में किया ही है। यहां विशेषरूप से वाह्य निमित्तों के विषय में विचार प्रस्तुत है । व्याकरणाचार्य जी दो प्रकार के निमित्त मानते हैं प्रथम प्रेरक निमित्त और दूसरे उदासीन निमित्त । इनके वे देखो ( स. पू. 14 ) वे दो प्रकार के लक्षण भी करते हैं। अव श्रागम देखें, श्रागम में वाह्य निमित्त और कार्य में समव्याप्ति मानी गई है । जैसा कि छहढाला के "सम्यक्कारण जान ज्ञान कारज है सोई" इस वचन से ज्ञात होता है। साथ ही उन दोनों को उसी छन्द में युगपत् स्वीकार किया है। श्रागम में दो प्रकार के वाह्य निमित्तों का उल्लेख आता है । जिनको प्रागम में विस्रसानिमित्त कहा गया है वे सब उदासीन निमित्त हैं, क्योंकि जड़ पदार्थ बुद्धि द्वारा किसी कार्य में निमित्त नहीं होते, हवा को निमित्त कर ध्वजा का फड़कना विस्रसानिमित्त ही है । उनमें दोनों के लिये उनका क्रिया स्वभाव मुख्य है । जो कार्य बुद्धिपूर्वक किये जाते हैं वे प्रायोगिक कार्य कहे जाते हैं । जैसा कि प्राप्तमीमांसा के इस वचन से स्पष्ट है - बुद्धिपूर्वापक्षायां इष्टानिष्ट स्वपोरुषात् । प्रबुद्धिपूवापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवत ॥ हुए बुद्धिपूर्वक इष्ट और अनिष्ट जो कार्य होते हैं उनमें पोरुप से - ऐसा स्वीकार किया जाता है। इन्हें ही प्रागम में प्रायोगिक कार्य माना गया है । तथा जो इष्ट और अनिष्ट कार्य बुद्धिपूर्वक नहीं होते वे ही आगम में दंव से हुए ऐसा स्वीकार किया जाता है। यहां देव का अर्थ पुराकृतकर्म और योग्यता किया गया है । इससे हम जानते हैं कि व्याकरणार्यजी आगम के शब्द प्रयोगों को देखकर बाह्य निमित्तों का प्रेरक निमित्त और उदासीन निमित्त यह अर्थ भले ही करते हों, जबकि कार्य-कारण भाव के प्रसंग से निमित्तों का विचार प्रायोगिक निमित्त और विस्रसा निमित्तरूप से ही : किया गया है । श्रागम का एक प्रमाण तो हम पहले प्राप्तमीमांसा का दे ही याये हैं । दूसरा प्रमाण हम सर्वार्थसिद्धि का यहां दे रहे हैं
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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