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________________ १८ ] दूसरे, अाजकल " डिग्री टू डिग्री" के अनुसार जो यह मान्यता चली है कि वाद्य निमित्तों में जितनी योग्यता या शक्ति होती है उतना ही कार्य होता है । सो यह मान्यता भी समीचीन नहीं है, क्योंकि एक तो पर्याययुक्त द्रव्य ही उपादान होता है। कहीं पर जो पर्याय को उपादान कहा गया है वह ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा ही कहा गया है, नंगमनय की अपेक्षा नहीं, क्योंकि नैगमनय द्रव्य-पर्याय दोनों को स्वीकार करता है । अव यहाँ प्रकृत में आगमवचन को देना इष्ट मानते हैं, जिससे प्रेरक निमित्तों का निरसन तो हो ही जाता है पर "डिग्री टू डिग्री" सिद्धान्त का भी निरसन हो जाता है । आगम का यह वचन इसप्रकार है-- केवलकसायपरिणामो चेवनणभागधादस्स कारणं, किन्तु पयडिगय सत्ति सम्बवेक्खो परिणामो अणुभागघावस्स कारणं तत्थ वि पहाणमंतरंग कारणं तम्हि उक्कस्से संते वहिरंगकारणं थोवे वि बहुअणुभागधादारण वलभादो । तरंगकारणे थोवे बहिरंगकारणे बहुए संते वि बहुअरणभागधादाएवलभादो। तदौणमाणुभागघाद अंतरंग कारणदो वेदणीयारणभागघाद अंतरंगकारणानन्तगुणहीणमिदि णामजहणाण भागादो वेदणीय जहण्णभागस्स प्रणंतगुणतं जुज्जदे । धवलल पु. 12, पृ. 33) केवल कषाय परिणाम ही अनुभागघात का कारण नहीं है किन्तु कर्मप्रकृति में रहनेवाली शक्ति की अपेक्षा सहित परिणाम अनुभागघात का कारण है । उसमें भी अतरंग (उपादान) कारण प्रधान है । उसके उत्कृष्ट होनेपर बहिरंग (निमित्त) कारण के स्तोक रहने पर भी बहुत अनुभाग का घात देखा जाता है और अंतरंग कारण के स्तोक रहने पर बहिरंग कारण के बहुत रहने पर अनुभाग का घात नहीं उपलब्ध होता। अतः नामकर्मसम्बन्धी अनुभाग के घात के अंतरंग कारण की अपेक्षा वेदनीय सम्बन्धी अनुभाग के घात का अंतरंग कारण अनन्तगुणा हीन है, अतः नामकर्म के जघन्य अनुभाग की अपेक्षा वेदनीय का जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है, यह बन जाता है। . नामकर्म का अनुभाग हत समुत्पत्ति कर्मवाले सूक्ष्म निगोदिया जीव का लिया गया है और उसी समय चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में स्थित अयोगकेवली का लिया गया है । इसलिये यहां प्रश्न है कि सूक्ष्म निगोदिय जीव के नामकर्म के जघन्य अनुभाग से अयोगकेवली के अन्तिम समय में वेदनीय कर्म के एक निषेक में स्थित जघन्य अनुन्तगुण कैसे होता है ? सो इसका समाधान प्राचार्यदेव ने उक्त प्रकार किया है। विशेष समझने के लिये उक्त प्रकरण पर दृष्टिपात करना चाहिये । इससे हम जग्न लेते हैं कि "वाह्य प्रेरक निमित्त उपादान को विकसित करने के लिये प्रेरणा मात्र प्रदान करता है" यह मान्यता स्वघर की मान्यता ही है और जो भाई उपादान और वाह्य निमित्त में डिग्री टू डिग्री का सिद्धान्त मानते हैं उसका भी निरसन हो जाता है। साथ ही व्याकरणाचार्य जी की इस मान्यता का भी खण्डन हो जाता है कि उपादान द्रव्य ही होता है, पर्याय नहीं, क्योंकि नामकर्म और वेदनीय कर्म के अनुभाग को विवक्षित जीव के विवक्षित समय का कहना तभी बन सकता है जब उन दोनों कर्मों के अनुभागों को पर्याययुक्त द्रव्य स्वीकार किया जाय । इसप्रकार पर्यायनिरपेक्ष मात्र द्रव्यरूप उपादान तो बनता ही नहीं। साथ ही उस उपादान को अनेक योग्यतावाला कहना भी इसीलिये नहीं बनता कि ऐसा उपादान एकान्त से नित्य द्रव्य ही हो सकता है यह मात्र व्याकरणाचार्य जी की मान्यता ही कही जायगी।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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