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________________ २१० **** श्री जयसेनाचार्य ने इसी बात को स्पष्ट करते हुए लिखा है यद्यपि व्यवहारेन भेदोऽस्ति तथापि निश्चयेन शुभाशुभकर्मभेदो नास्ति । यद्यपि व्यवहार से भेद हैं, तथापि निश्चय से शुभ और अशुभ कर्म में भेद नहीं है । - यहां कर्म शब्द से द्रव्यकर्म और भावकर्म दोनों को ग्रहण किया गया है। जिसे हम व्यवहारधर्म कहते हैं, वह भी बन्धमार्ग के प्राश्रित होने से जीव का निजभाव सिद्ध न होकर परभाव ही सिद्ध होता है । और इसलिए निश्चयनय की विवक्षा में स्वभावभूत जीव का निश्चयधर्म सिद्ध न होने से उसे श्रसद्भूतव्यवहारनय से ही प्रागम में स्वीकार किया गया है। यहां उस पक्ष ने घट का उदाहरण देकर जो अपने अभिप्राय को पुष्ट करना चाहा है, उससे उक्त अभिप्राय: इसलिये पुष्ट नहीं होता है; क्योंकि उस उदारहरण से जीव की व्यवहारपर्याय और स्वभावपर्याय के होने में कारणभेद श्राश्रयभेद आदि से अन्तर पड़ता है, वह स्पष्ट नहीं होता। यहां उस पक्ष ने अन्य जितना कुछ भी लिखा है, वह पिष्टपेषण मात्र होने से उस पर हम अलग से विचार नहीं कर रहे हैं । *** यहां स. पू. २९७ पर पूर्वपक्ष ने श्रागम के लौकिक और आध्यात्मिक ये दो भेद किये हैं, वह प्रकृत में समझ के बाहर है। आगम़ एक ही प्रकार का होता है और वह जिनवाणी के रूप में माना गया है । जितनी भी जिनवाणी है, प्रयोजन के अनुसार श्राध्यात्मिक ही होती है । जो वंचक पुरुषों द्वारा लिखा गया है, उसे जिनागम नहीं कहा जा सकता, चाहे कल्पना में वह लौकिक हो या श्रांध्यात्मिक । प्रवचनसार में इसी बात को स्पष्ट करते हुए श्रा: कुन्दकुन्द देव कहते हैं । 1 सव्वे वि य अरहंता तेरण विधारणेण खविदुकम्म॑सा । किच्चा तथोवेदेसं रिगव्वादा " गमो ते तेसिं ॥ ८२ ॥ जितने भी अरहंत हैं उन्होंने जिस विधि से कर्मों का क्षय किया, उसी विधि से उपदेश देकर वे निर्वाण को प्राप्त हुए हैं, उन्हें हमारा नमस्कार हो । इस: उपदेश में चारों अनुयोग गर्भित हैं । इसलिए उन्हें लौकिक वाणी न समझकर झाघ्यात्मिक वाणी ही समझनी चाहिए, क्योंकि सभी आगमों के अध्ययन का फल वीतरागता है । 1. उस पक्ष के उक्त कथन को पढ़कर ऐसा लगता है कि उसने आगम के अन्तर्गत जैन ऋषियों को छोड़कर अन्य द्वारा रचित ग्रन्थों को भी श्रागम में ग्रभित कर लिया है, पर उसे आगम कहना ठीक नहीं । P यहां उस पक्ष ने स. पू. २६८ में चारों अनुयोगों के विषय में जो लिखा है, उसके लिये हम इतना ही कहेंगे कि रत्नकरण्ड श्रावकाचार में उनके स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है, वहां से उसे जान लेना चाहिये । 7 धार पर जो औ यहां पर स. पू. २६६ पर उस पक्ष ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार के आधार पर जो कुछ लिखा ` है, वह उसकी बुद्धि की कल्पना मात्र है । वस्तुत: करणानुयोग का स्वरूपं द्रव्यानुयोग से भिन्न ही है, 'क्योंकि षट्खंडागर्म आदि ग्रन्थों का विवेचन चार गति आदि मार्गेरणस्थानों और गुणस्थानों के आधार
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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