SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०२ ज्ञान सम्यग्नान हो जाता है और उसी समय यह आत्मा आत्मानुभूतिपूर्वक स्वरूप में रमण करने से अंशतः चारित्रभाव को भी प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार एक अात्मा ही रत्नत्रयरूप परिणमित हुआ है, इसलिये निश्चय से एक वही आत्मा साध्य और साधक उभयरूप होने से उपासना करने योग्य आगम में कहा गया है । यह निश्चयधर्म की प्राप्ति का मार्ग है। १. व्यवहारधर्म अब इस निश्चयधर्म की प्राप्ति के समय व्यवहारधर्म किस रूप में वर्तता है, इसे स्पष्ट करते हैं। जो अनादि मिथ्याष्टि जीव जिनधर्म की परम्परा को अंगीकार करके मोक्ष की इच्छा से वीतराग देव, द्वादशांग वाणी और वीतराग गुरु की उपासना करने लगता है । साथ ही जिनधर्म के जो प्रारंभिक नियम हैं, उनका भी अनुसरण करने लगता है वही जीव निश्चय मोक्षमार्ग को प्राप्ति करने का अधिकारी आगम में माना गया है। ऐसे जीव के यद्यपि निश्चयमार्ग की प्राप्ति के काल में प्रवृत्तिरूप उक्त व्यवहार तो नहीं होता, फिर भी उस जाति का संस्कार और राग वना रहने से उसमें निश्चय मोक्षमार्ग की प्राप्ति में साधनपने का व्यवहार हो जाता है। एक तो इसीलिए व्यवहार मोक्षमार्ग को साधन और निश्चय मोक्षमार्ग को साध्य कहा है, दूसरे सम्यग्दृष्टि के विकल्प दशा में उक्त जाति का संस्कार और देव, शास्त्र, गुरु की आराधना आदिरूप परिणाम वना रहने से उस सम्यग्दृष्टि का चित्त विषय कपाय की ओर विशेषरूप से नहीं झुकता, इसलिये भी उसको निश्चय मोक्षमार्ग का साधन कहा गया है। आगे भी.प्रमत्त अवस्था तक इसीप्रकार साध्य-साधन भाव को घटित कर लेना चाहिए । इसके आगे सप्तम आदि गुणस्थानों में एक निश्चयधर्म की ही प्रवृत्ति रहती है । इतना अवश्य है कि १० वें गुणस्थान तक तत्जातीय राग का सद्भाव होने से उपचार से व्यवहारधर्म कहा गया है । प्रवृत्तिरूप व्यवहारधर्म का वहां प्रभाव है । __ यह पूर्वपक्ष के कथन को ध्यान में रखकर सामान्य कथन है। वैसे यहां इसका विशेप प्रसंग न होने से हमने उसको विशेष विवेचना नहीं की है और न ही पूर्वपक्ष के कथन को ध्यान में लेकर उसका संक्षिप्त उत्तर भी हमने यहाँ दिया है । प्रागम क्या है, केवल इतना बताना हमारा प्रयोजन रहा है। " शंका. ४ के पहले दौर की समीक्षा का समाधान उत्तरपक्ष के कथन का सार - ___ पूर्वपक्ष के मूल प्रश्न को ध्यान में रखकर हमने पूर्व में जो यह समाधान किया था कि निश्चयधर्म की उत्पत्ति की अपेक्षा विचार करने पर यह स्पष्ट ज्ञात होता है .कि निश्चयधर्म की उत्पत्ति परनिरपेक्ष होने से उसमें अर्थात् उत्पत्ति में व्यवहारधर्म की सहायता अपेक्षित नहीं होती। अन्यथा निश्चयधर्म परनिरपेक्ष होता है, यह कथन नहीं बनता। आगम में जहां भी व्यवहारधर्म को साधक कहा गया है, वह निमित्तपने की अपेक्षा ही कहा गया है, जो निश्चयधर्म की प्राप्ति में गौरण
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy