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________________ १८५ शुद्ध परिणति का सद्भाव वना रहने पर भी स्वयं की अनुभूति क्वचित् कदाचित् होती है, किन्तु ७ वें गुणस्थान से आगे १० वें गुणस्थान तक अबुद्धिपूर्वक ही संज्वलन कषाय का उदय रहने से उसकी विवक्षा में पर्याय से शुभ परिणति कही जाती है, क्योंकि वहां उपयोग में आत्माश्रित परिणाम का ही सद्भाव पाया जाता है, जो शुद्धोपयोगरूप होता है । समीक्षक ने यहाँ पर जिस रूप में शुद्ध परिणति का स्पष्टीकरण किया है, वह ठीक नहीं है, क्योंकि ७ वें गुणस्थान से लेकर अबुद्धिपूर्वक · संज्वलन कषाय का सद्भाव रहने के कारण एक मात्र वही वन्ध का कारण है, शुद्धोपयोग नहीं । समीक्षक सर्वत्र निश्चयधर्मरूप जो जीवदया का निर्देश करता है, सो परजीवों की दया पराश्रित भाव है, उसे वह निश्चयधर्म कैसे स्वीकार करता है, यह वही जाने । मालूम पड़ता है कि स्वाश्रित भाव से पराश्रितभाव में क्या भेद है, इसकी ओर उसका ध्यान ही नहीं गया है। .. आगे समीक्षक ने स. पृ. २५२ में जो यह लिखा है कि "पुण्यरूप जीवदया जीव की संकल्पी पापमय अदया से घृणा उत्पन्न होने में सहायक होती है और घृणा के बलपर ही वह जीव उस संकल्पी पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति का सर्वथा त्याग कर देता है, इत्यादि ।" सो इस कथन से ऐसा लगता है कि संकल्पी हिंसा का त्याग, उसमें घृणा होने से करता है, अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति संसार का कारण है, ऐसा निर्णयकर उसका त्याग नहीं करता। आश्चर्य है कि समता परिणाम को जीवन में उतारने के अभिप्राय वाले जीव के घृणाभाव कैसे कैसे बना रहता है । अहिंसा धर्म है ऐसा मानकर संकल्पी हिंसा का त्याग करना और बात है तथा घृणा के कारण हिंसा का त्याग करना और वात है। यदि वह इस भेद को ठीक तरह से ध्यान में ले ले तो परजीव की संकल्पी हिंसा का त्याग करना व्यवहारधर्म है, क्योंकि उसमें शुभरूप परिणति पायी जाती है। तो वह अपने द्वारा किये गये विश्लेषण को छोड़कर जिनागम के अनुसार शुभभाव का जो अर्थ होता है उसे वह हृदय से स्वीकार करले । समीक्षक ने अपने कथन के आधार पर पुरुषार्थसिद्धयुपाय के पद्य १२१, ११६ और १२४ का जो निष्कर्ष निकाला है, उसका सुतराम् निरसन हो जाता है, क्योंकि परजीव की दया पराश्रित भाव होने से उसमें प्रवृत्ति की मुख्यता पायी जाती है, इसलिये वह मात्र वन्ध का ही कारण है, या स्वयं संवर-निर्जरा स्वरूप है । जयधवल में जो शुभ परिणति को भी संवर-निर्जरा का कारण कहा है, वह उपचार से ही कहा है, क्योंकि परकी जीवदया स्वयं प्रवृत्तिरूप होने से बन्धस्वरूप ही सिद्ध होती है। केवल उसे शुद्ध परिणति की संगति होने से उपचार से वह लाभ मिल जाता है, जो शुद्ध परिणति को स्वीकार किया गया है। __ समयसार गाथा १५० पीर आत्मख्याति टीका को जो वह अपने समर्थन में समझता है तो उसका यह मानना ठीक नहीं है, क्योंकि व्यवहार रत्नत्रय पराश्रित भाव होने से वह परमार्थ से संवर-निर्जरा का कारण सिद्ध नहीं होता, मात्र उससे बन्ध ही होता है। अन्यथा व्यवहारधर्म और निश्चयधर्म में कोई भेद ही नहीं रहेगा । व्यवहारधर्म पालन करते हुए ही मोक्ष का अधिकारी वन जायगा। निश्चयधर्म रूप प्रवृत्ति करने की कोई आवश्यकता ही नहीं रहेगी । उसके विना भी व्यवहार धर्म की प्राप्ति हो जायगी, किन्तु ऐसा आगम में स्वीकार ही नहीं किया गया है ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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