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________________ १७२ यहाँ ( स. पृ. २२० में ) जो उसने प्रमेयकमलमार्तण्ड ( शास्त्रागार ) पत्र ५२ का हिन्दी अनुवाद उपस्थित कर अपने पक्ष का समर्थन करवाना चाहा है सो यह वचनशैली है, इससे कुछ सिद्धान्त नहीं फलित किये जाते । जब दोनों में कालप्रत्यासत्ति है तो उसे किन्हीं शब्दों में कहा जाय, उसका अर्थ इतना ही होगा कि उपादान स्वयं कर्ता होकर परिणामलक्षण या क्रियालक्षण अपना कार्य करता है और उपचार से उसके अनुकूल अन्य द्रव्य उसमें निमित्त होता है । यदि उपादान द्रव्य कार्यरूप परिणमन न करे और निमित्त उस रूप परिणमन करे तो कहा जायगा कि कार्यद्रव्य में मात्र कार्यरूप परिणमन की योग्यता है, किन्तु जब निमित्तद्रव्य उस द्रव्य के कार्यरूप परिणमन करता है, तब वह कार्य होता है । सो वात तो है नहीं, क्योंकि जिस समय उपादान द्रव्य कार्यरूप परिणमन करता है तब उसके निमित्त होने वाला द्रव्य भी अपने कार्यरूप परिणमन करता है, इसलिये कोई किसी की सहायता से परिणमता है यह जिनागम नहीं है । अनुभव आदि के विषय में तो हम पहले ही स्पष्टीकरण कर आये हैं ।पड्गुण हानि-वृद्धिरूप कार्य के विषय में हमने यही स्पष्ट लिखा है कि जैसी पूर्वपक्ष की मान्यता है वह जिनागम नहीं है । उपादान और निमित्त के मेल से कार्य नहीं होता, किन्तु उपादान स्वयं कार्यरूप परिणमता है और बाह्य पर्याय युक्त द्रव्य उसमें निमित्त होता है। निमित्त से कार्य हुआ यह उपचरित नय वचन है, परमार्थ ऐसा नहीं है । उपादान ने कर्त्ता बनकर स्वयं कार्य किया, यह परमार्थ है । यहां समीक्षक "मेरी (पं० फूलचन्द की ) किस मान्यता को उत्तरपक्ष ने स्वीकार नहीं किया" यह स्पष्ट कर देता तो मैं अपने सहयोगी बन्युनों से पूछता भी। परन्तु उत्तरपक्ष के दूसरे सहयोगियों का निजि मामला बतलाकर समीक्षक अपने काल्पनिक मंतव्य की पुष्टि में लग जाता है। __ आगे पृ..२३० में समीक्षक ने जो यह लिखा है कि "प्रत्येक वस्तु में प्रति समय कार्योत्पत्ति की स्वाभाविक योग्यतारूप अनेक उपादान शक्तियों का सद्भाव रहता है, उनमें से प्राप्त निमित्तों के अनुसार कोई एक कार्य की उत्पत्ति एक समय में हुअा करती है ।" तो इस सम्बन्ध में जानना यह है कि (१) निमित्त कार्यकाल में होता है कि पहले होता है। (२) दूसरी बात यह जाननी है कि जितने काल में समय है, उतनी ही प्रत्येक द्रव्य में कार्ययोग्यतायें हैं, तो क्या वे कालविभाग से विभक्त हैं या प्रत्येक समय में एक साथ प्राप्त होती रहती हैं । (३) तीसरी बात यह जाननी है कि जहां कार्य के साथ निमित्त की व्याप्ति है, वहां कार्य पहले हो लेता है, तब निमित्त मिलता है या निमित्त पहले रहता है और बाद में कार्य होता है। या कार्य और निमित्त एकसाथ होते हैं या निमित्त के प्रभाव में भी कार्य हो जाता है। इन सब बातों का निर्णय होने पर ही स. पृ. २३० में जो विधान किया है, उसे युक्तियुक्त कहा जा सकता है, अन्यथा नहीं । निमित्त को कार्यकाल में मानने पर दोनों एकसाथ हैं, किसी ने किसी को उत्पन्न नहीं किया यही कहा जायेगा। . (१) निमित्त को पहले मानने पर वह उपादान हो जायगा, क्योंकि परीक्षामुख में उपादान को एक ही समय पहले स्वीकार किया है, निमित्त को नहीं ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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