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________________ १६३ यह कहकर कि पर्याय तो द्रव्यं में रहती ही है, समर्थ उपादान के लक्षण को तिलांजलि देकर अपनी मान्यतानुसार निमित्तों और उपादान के लक्षण वना लिये हैं । इत्यादि पूर्वपक्ष के कतिपय ऐसे विचार हैं जो जिनागम की तत्वप्ररूपणा की मूल तथा प्रयोजनीय धारा को ही बदल देते हैं । श्रतः हमारा प्रयोजन निश्चयव्यवहार को यथावत् रूप में उपस्थित करने का रहा है, श्रतः समीक्षक को अगर अपने कथनानुसार हमारे लिखान में ऐसी कोई गंध श्राई हो, जिससे उसे ऐसा प्रतीत हुआ हो कि हम अपने को तत्त्वज्ञ समझ रहे हैं तो इसके लिये हम समीक्षक से इतना ही कहेंगे कि निर्णय के लिये की गई चर्चा में उसे ऐसे भाव नहीं बनाने चाहिये थे । हमें तो जिनागम स्पष्ट करना था और उसी प्रयोजन से समग्र समाधान लिखे भी हैं। इस प्रसंग में हमें तो पू. पं. माणिकचन्दजी न्यायाचार्य के ये वचन याद ग्राते हैं, जब उन्होंने जयपुर खानिया में इस तत्वचर्चा के वें दिन कहे थे - " फूलचन्दजी श्राप भी आज हमें उसी रूप में मानते हैं तो यह मानकर चलना कि यह पं. फूलचन्द नहीं लिख रहा है, यह पं. माणिकचन्द लिख रहा है ।" इस सम्बन्ध में हम बहुत क्या सकेत करें, पूर्वपक्ष द्वारा लिखी गई जिन कतिपय १० बातों को हमने यहाँ प्रस्तुत किया है, उन्हीं बातों से वह समझ लेगा कि हम (पूर्वपक्ष) जिनागम की प्ररूपरणा को छोड़कर कहाँ भटक कर चले गये हैं । अस्तु । श्रागे समीक्षक ने स. पू. २१८ में जो उपचरित कारण को स्वीकार करने के अभिप्राय से यह लिखा है कि - " पूर्वपक्ष उपचरित कारण को उपादान के कार्य में सहायक होने के आधार पर कार्यकारी मानता है ।" सो इस कथन का समाधान यह है कि कोई भी द्रव्य किसी अन्य द्रव्य के कार्य में परमार्थ से सहायक नहीं हुआ करता । जैसा कि समयसार गा. ११६ से १२० की श्रात्मख्याति टीका में कहा भी है "स्वयं परिरणससारखं तु न परं परिगमयितारमपेक्षेत” परिणमन कराने वाले द्रव्य की अपेक्षा कि "उसकी सहायता से यह कार्य हुआ " ही किया जाता है, क्योंकि किसी अन्य परमार्थ से स्वयं परिणमन करने वाला द्रव्य अन्य नहीं करता । व्यवहार की विवक्षा में जो यह कहा जाता है सो यह कथन अपरमार्थरूप होने से परमार्थ से उसका निषेध द्रव्य की सहायता से अन्य द्रव्य कार्य करे यह भूतार्थं अर्थात् यथार्थ नहीं है । परमार्थ से कथन मात्र है | उसे कथन मात्र इसलिये कहते हैं कि वह कार्य द्रव्य के स्वरूप से वहिर्भूत है, क्योंकि सहायता नाम की कोई वस्तु नहीं है। न तो उसका निमित्त द्रव्य में ही सद्भाव है और न कार्य द्रव्य में ही । आगे समीक्षक ने भव्य जीव को मोक्ष प्राप्त करने के लिये जो मानव शरीर और वज्रवृषभनाराच संहनन के समर्थन का 'उल्लेख किया है, सो भाई जिसे निमित्त कहा जाता है उसमें और कार्य में कालप्रत्यासत्तिवश तीनों कालों में एक साथ होने का जो नियम है, सो उसका यह श्राशय नहीं है कि शरीर या वज्रवृषभनाराच संहनन अपने कार्यों को छोड़कर भव्य जीवों के मोक्ष प्राप्ति रूप कार्य में परमार्थ से सहायता करने लगता है । वस्तुतः भव्य जीव रत्नत्रय प्राप्ति रूप कार्य को अन्य किसी की सहायता के बिना स्वयं उत्पन्न करता है और शरीर तथा वज्रवृषभनाराच संहनन भी भव्य जीव की सहायता के बिना स्वयं ही उत्पन्न होते हैं और स्वयं ही जीणं होते हैं । कर्मोदय तो
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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