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________________ १५४ प्रत्येक कार्य योग्य काल में होकर भी वह जीव के गौण मुख्यरूप तदनुकूल योग्य पुरुषार्थ पूर्वक ही होता है । यदि अबुद्धि पूर्वक कार्य होता है तो पुरुषार्थ की गोणरूपता कहीं जाती है । प्राचार्य समन्तभद्र के “बुद्धिपूर्वापेक्षायां” इत्यादि वचन से यही फलित होता है । कहीं दैव की मुख्यता है और कहीं पुरुषार्थ की । इससे कार्य के होने में कालप्रत्यासत्ति का प्रभाव नहीं हो जाता ।" (घ) कार्यकाल में निमित्त कार्य का काम नहीं करता, इसलिये तो क्योंकि निमित्त का सद्भाव माना भी गया है असद्द्भूत व्यवहारनय से ही अनुकूल भी इसी नय से कहा जाता है । जिसे हम कार्य का निमित्त कहते हैं, कार्य अवश्य करता है, इस अपेक्षा से वह किंचित्कर भी है । । वह अकिंचित्कर है, निमित्त को कार्य के वह उस समय अपना (च) प्रश्नोत्तर १ में जिन प्रमाणों से समीक्षक ने यह सिद्ध किया है कि " कार्य के प्रति सन्मुखता प्रेरक निमित्त के बल से ही होती है" वहीं हम ( उत्तरपक्ष ) यह भी सिद्ध कर प्राये हैं कि प्रेरक निमित्त कहना यह कथन मात्र अर्थात् प्रसद्भूत व्यवहारनय से ही कहा जाता है । वैसे देखा जातो पर के कार्य के प्रति सभी निमित्त उदासीन ही होते हैं। कार्यं समर्थ उपादान से होता है यह जहाँ सद्भूत व्यवहारनय से कहा जाता है वहां वह आवश्यक वाह्य निमित्त से होता है यह अद्भूत व्यवहारनय से कहा जाता है । वैसे देखा जाय तो सब कार्य अपने काल में स्वयं होते हैं, यह परमार्थ है । P (छ) हम जो यह लिख आये हैं कि "इस जीव का अनादि काल से पर द्रव्य के साथ संयोग बना चला आ रहा है, इसलिये वह संयोग काल में होनेवाले कार्यों को जब जिस पदार्थ का, संयोग होता है अज्ञानवश उससे मानता चला आ रहा है । यहीं उसकी मिथ्या मान्यता है" वह यथार्थ लिखा है, क्योंकि अज्ञान इसी का नाम है । सर्वार्थसिद्धि अ. १ सूत्र ३२ की टीका में जो कारण-विपर्यय का उल्लेख किया है वह उक्त मिथ्या मान्यता को ध्यान में रखकर ही लिखा है । (ज) हमने अपने वक्तव्य के अन्त में जो यह लिखा है कि "प्रत्येक प्राणी को अपने परिणामों के अनुसार ही परमार्थ से पुण्य पाप और धर्म होता है, शरीर की क्रिया के अनुसार नहीं यही निर्णय करना चाहिये और ऐसा मानना ही जिनागम के अनुसार है" सो यह हमने ठीक ही लिखा है । तत्वार्थसूत्र प्र. ६ सूत्र ३ की सवार्थसिद्धि टीका में योग की चर्चा करते हुए लिखा है कि"शुभपरिणाम निर्वृतः योगः शुभयोगः अशुभपरिणाम निर्वृत्तः योगः अशुभयोगः " अर्थात् शुभ परिणाम से जिस योग की स्थिति बनती है वह शुभ योग कहलाता है तथा अशुभ परिणाम से जिस योग की स्थिति बनती है वह अशुभ योग कहलाता है । इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस तरह की शरीर की क्रिया में संसारी आत्मा की जिस प्रकार की परिणति निमित्त है शरीर की उसी क्रिया को शुभ-अशुभ भाव और धर्म में निमित्त कहा जाता है, फिर भी कोई शरीर जीवित नहीं होता। इसलिये जीवित शरीर मानकर उसकी क्रिया से शुभ अशुभ भाव
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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