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________________ १४६ मूल शंका २ की सामान्य समीक्षा का समाधान मूल शंका २:- जीवित शरीर की क्रिया से धर्म-अधर्म होता है या नहीं ? - समाधान :- इस शंका को उपस्थित करने में शंकाकार का क्या अभिप्राय रहा है यह उत्तर पक्ष कैसे जानता ? शंका में "जीवित" शब्द शरीर का विशेपण है । यही उत्तर पक्ष ने समझा था, इसलिये इसी आधार पर उसने उत्तर दिया.था, जो युक्तियुक्त होने से शंकाकार पक्ष को या समीक्षक को मान्य कर लेना चाहिये था। अव जो उसने लिखा है उसके अनुसार हम उससे आत्मा में धर्म-अधर्म का निषेध नहीं करते हैं, क्योंकि शरीर आत्मा के धर्म और अधर्म में असद्भूत व्यवहारनय से ही निमित्त है, वाह्य निमित्त होकर वह परमार्थ से सहयोग नहीं करता। वह सहयोग नहीं करता है - यह कहना भी उपचरित ही है, जो प्रयोजन विशेष से कहा जाता है । . हमारे सामने कोई विचारणीय प्रश्न नहीं, क्योंकि प्रात्मा में धर्म और अधर्म की उत्पत्ति का आधार भी स्वयं आत्मा ही है, क्योंकि जिसमें जो उत्पन्न होता है परमार्थ से वही उसका आधार होता है। शरीर को उसका आधार कहना यह उपचार मात्र ही है। जीव जो पुरुषार्थ करता है वह जीव की ही परिणति विशेष है। शरीर उसमें उपचार से निमित्त मात्र है। कोई किसी को परमार्थ से सहयोग नहीं करता । सब अपनी-अपनी परिणति में मग्न हैं । आगे स. पृ. १६१ के प्रारम्भ में उसने जो कुछ लिखा उसका भी यही उत्तर है । (१) क्रमांक के अन्तर्गत, जो कुछ लिखा है उसका उत्तर यह है कि धर्म आत्मा का रत्नत्रयरूप परिणाम है और अधर्म मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप परिणाम है । इनके होने में जहां जिसकी संभावना बनती है वहां उसमें शरीर उपचार से निमित्त है । आगे क्रमांक के अनुसार समाधान इस प्रकार है (२) द्रव्य मन, वचन और काय ये तोनों जीव के सक्रिय होने में निमित्त हैं। जीव में धर्म और अधर्म की व्याच्या उसके परिणामों के अनुसार बनती है । आत्मलक्षी परिणाम धर्म भाव का कारण है और परलक्षी परिणाम इसके विपरीत भाव का कारण है। ऐसी सीधी व्याख्या करना ही श्रेयस्कर है। . (३) संसार शरीर और भोगों के प्रति जो मन, वचन और काय को निमित्त कर उपयोग परिणाम होता है उसी का नाम अशुभोपयोग है । संसार के प्रयोजन को गौरणकर सम्यक् देवादि के प्रति या व्रतादि के प्रति जो उक्त प्रकार से उपयोग परिणाम होता है उसी का नाम शुभोपयोग है। धर्म भाव इससे सर्वथा भिन्न है । वह मुक्ति स्वरूप है और क्रम से पूर्ण मुक्ति का कारण है। (४) इनमें शुभ और अशुभ परिणति तथा शुभोपयोग अशुभोपयोग वन्ध के कारण या स्वयं ही वन्ध स्वरूप हैं । तथा स्वभाव परिणति और शुद्धोपयोग मोक्ष के कारण हैं या स्वयं मुक्ति स्वरूप हैं। .
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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