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________________ १४३ अतो न निश्चयतः परेण सहात्मनः कारकत्वसम्बन्धोऽस्ति यतः शुद्धात्मस्वभावलाभाय सामग्रीमार्गणान्यग्रतया परतन्त्रैर्भूयते । यह कार्य कारण का ही प्रकरण है । इतना अवश्य है कि यहां पराश्रित कार्यकारण भाव की अपेक्षा कथन नहीं किया गया है । किन्तु स्वाश्रित कार्य कारणभाव की अपेक्षा ही यह कथन किया गया है । वही मुख्य है, अन्य कथन तो प्रयोजन के अनुसार कथन मात्र हैं । कथन नं. ६ का समाधान: --- इस कथन में समीक्षक ने उपचार पद के अर्थ को स्वीकार कर लिया है पर उसे गौण करके अन्य विषय की चर्चा छेड़ दी है, किन्तु उसे मालूम होना चाहिये कि धवल पु. पृ. ११ का अनुवाद मेरा नहीं है । मैने तो उस अनुवाद को प्रामाणिक मानकर ही उसका उल्लेख मात्र किया था । इसकी चर्चा वह पहले भी कर चुका है और मुख्य मुद्दे को छोड़कर यहां भी कर रहा है । हम कहते हैं कि उसे इसी प्रकार यहां और सर्वत्र अपने वक्तव्य में सुधार कर लेना चाहिए । ऐसा न करके प्रकृत में उसका यह तो अपने पृ. ३१ वक्तव्य के सम्वन्ध में अपने को छिपा लेना हुआ । जो तत्व चर्चा में उपयुक्त नहीं माना जा सकता । उसने पृ. ३१ में समयसार के आधार से लिखा था- .. "परन्तु ऐसा उपचार प्रकृत में सम्भव नहीं है कारण कि आत्मा के कर्तृत्व का उपचार यदि द्रव्य कर्म में आप करेंगे तो इस उपचार के लिये सर्वप्रथम आपको निमित्त तथा प्रयोजन देखना होगा जिसका कि सर्वथा अभाव है ।" 'इसका समाधान करते हुए हमने लिखा था - समाधान यह है कि यहां पर न तो व्यवहार हेतु और न व्यवहार प्रयोजन का प्रभाव ही है और न ही आत्मा के कर्तृत्व का उपचार द्रव्यकर्म में कर रहे हैं, किन्तु प्रकृत में हम कर्म परिणाम के सन्मुख हुए कर्म वर्गरणाओं के कर्तृत्व का व्यवहार हेतु संज्ञा को प्राप्त अज्ञानभावं से परिणित आत्मा में कर रहे हैं । हमारे इस समाधान से स्पष्ट है कि समीक्षक अपनी भूल को ऐसे रूप में स्वीकार करता है कि वह शब्दों के जाल में सव को समझ में न आये ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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