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________________ शंकाएँ रखने का परिणाम ही नहीं हुया। उनकी ओर से पूछा भी गया तो यह उत्तर दे दिया गया कि आगे विचार करेंगे । इससे ऐसा लगता है कि उस समय व्याकरणाचार्य जी सो रहे थे, क्योंकि उन्होंने यह सब होने दिया, अपने आदमियों को रोका नहीं। इसलिये जड़ में वे ही थे ऐसा लगता है । आद-भाई नेमीचंदजी पाटनी को दोष देने से क्या लाभ? अपनी पोर देखना चाहिये । दूसरी ओर के विद्वानों की तरफ से विवश होकर हम यह सब लिख रहे हैं । वैसे भीतर की इस घटनाओं को कभी नहीं लिखते, पहले लिखा भी नहीं था, क्योंकि सभी अपने हैं यह भाव हमें सदा बनाये रखना है । ऐसा किये विना मोक्षमार्ग बनता ही नही। पक्ष-विपक्ष देखना समझदार आदमी का खासकर मोक्षमार्गी का काम नहीं इसे व्याकरणचार्य जी भी समझते हों तो अच्छी बात होगी। अन्तिम दौर की सामग्री व्याकरणाचार्य जी ने स्वयं लिखकर हमारे पास भेजी थी, मध्यस्थ के मार्फत भी नहीं भेजी थी। हम समझते थे कि तीसरे दौर की सामग्री पढ़कर तथा उसे देखकर संशोधन करके साथ ही दूसरे विद्वानों के हस्ताक्षर कराकर हमारे पास भिजायेंगे, परन्तु दूसरे विद्वानों ने तो नियम का लाभ उठाकर इस चर्चा से पिण्ड छुड़ा लिया, मात्र व्याकरणाचार्य जी मुख्य वन गये। जवकि यह चर्चा सब विद्वानों के मध्य हुई थी, इसलिये समारोप भी उसी तरह होना चाहिये था। परन्तु ऐसा नहीं हुआ इसका सभी को आश्चर्य होना चाहिये । (1) श्री व्याकरणचार्य जी का यह कहना है कि "उपादान हमेशा (नित्य) द्रव्य ही हुआ करता है, वह पर्याय विशिष्ट होता है यह दूसरी बात है, लेकिन पर्याय तो कार्य मे ही अन्तर्भूत होती है, वह उपादान कभी नहीं होती । यह विधान उन्होंने “जैनतत्व मीमांसा की मीमांसा" नामक पुस्तक के पृष्ठ 369 में किया है । "खानिया तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा" नामक इस पुस्तक में भी उन्होंने इसी मत का समर्थन करते हुए इस समीक्षा को लिखा है । उदाहरणस्वरूप उनके द्वारा लिखे गये वाक्य हम यहां दे रहे हैं। (2) जो परिणमन को स्वीकार करे, ग्रहण करे या जिसमें परिणमन हो उसे उपादान कहते हैं। इस तरह उपादान कार्य का आश्रय ठहरता है। निमित्त का अर्थ करते हुए वे लिखते हैं-"जो मित्र के समान उपादान का स्नेहन करे अर्थात् उसकी कार्यपरिणति में जो मित्र के समान सहयोगी हो वह निमित्त कहलाता है (खा. पृ. 21) (3) इसी पृष्ठ में इसके फलितार्थ को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं "इसप्रकार छागम में जहाँ भी निमित्त-नैमित्तिक भाव को लेकर उपचारहेतु या उपचारकर्ता, व्यवहार हेतु या व्यवहारकर्ता, बाह्यहेतु या बाह्यकर्ता. गौरणहेतु या गौणकर्ता आदि शब्द प्रयोग पाये जाते हैं उन सबका अर्थ निमित्त कारण (सहकारीकारण) या निमित्त कर्ता (सहकारीकर्ता) ही करना चाहिये । उनका आरोपित हेतु (काल्पनिक हेतु ) या आरोपकर्ता (काल्पनिककर्ता) अर्थ करना असंगत ही जानना चाहिये।" (खा. पृ. 21) (4) जो निमित्तों की अपेक्षा के बिना केवल उपादान के अपने ग्लपर ही उत्पन्न हया करते हैं और जिन्हें वहां स्वप्रत्यय नाम दिया गया है । (खा. पृ. 25)
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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