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________________ १०६ यह समीक्षक द्वारा प्रकृत में किये गये पूरे वक्तव्य का सार है । यदि इसके द्वारा उक्त तीन दौरों के साथ इस समीक्षा में किये गये कथन का सार माना जाय तो कोई प्रयुक्ति नहीं होगी । उसके अनुसार - (१) वस्तुत: इस द्वारा समीक्षक ने उक्त कथन द्वारा निश्चय पक्ष को पराश्रित और व्यवहारपक्ष को स्वाश्रित मानकर पूरे जिनागम को उलट कर रख दिया है । (२) उसे उसकी चिन्ता नहीं कि हमारा ऐसा लिखना जैनदर्शन न होकर पराश्रित नैयायिक दर्शन हो जायगा, उसे तो जैनधमं द्वारा स्वीकृत सम्यक् नियति को कैसे प्रसत्य ठहराया जाय, इसकी चिन्ता है; ग्रागम को नहीं । (३) इस द्वारा वह समीक्षक निश्चयपक्ष को पराश्रित और व्यवहार पक्ष को स्वाश्रित वनाने का प्रयत्न तो कर ही रहा है, साथ ही वह द्रव्य स्वभाव से उत्पाद-व्यय- श्रीव्य स्वरूप है, इसका निषेध कर उसे पराश्रित रूप से उत्पाद व्यय - श्रीव्य स्वरूप सिद्ध करने का भी असफल प्रयत्न कर रहा है । इतना लिखने के बाद श्रव हम देखें कि यह "प्रेरक" शब्द का प्रयोग मुख्यता से श्रागम में कहाँ-कहाँ आया है तत्सामर्थ्यपेतेन क्रियावतात्मना प्रेर्यमारगाः पुद्गलाः । वाक्त्वेन विपरिणमन्त इति द्रव्यवागपि पौद्गलिकी ॥ ( स. श्र ५ लू. १६) यह सर्वार्थसिद्धि का उदाहरण है । इसमें पुद्गल शब्द परिणत हों, इस कार्य में उसप्रकार की सामर्थ्य से युक्त क्रियावान् ग्रात्मा को प्रेरक कहा गया है । यह पहला उदाहरण है, सो इसका तो इतना ही प्रयं है कि सकर्मा श्रात्मा के इच्छापूर्वक की गयी क्रिया को निमित्तकर वहाँ स्थित पुद्गलवर्गणायें स्वयं ही शब्दरूप परिणम जाती हैं । इसके लिये श्राप्तमीमांसा के “बुद्धिपूवपिक्षायां" इत्यादि वचन पर दृष्टिपात करना चाहिये । समीक्षक हमारे इस कथन को श्रागमानुकूल न माने तो वहीं हम उससे पूछना चाहेंगे कि श्रा. अमृतचंद्रदेव ने पुरुषार्थसिद्ध युपाय में जो "जीवकृतं परिणामं" इत्यादि वचन कहा है, सो वहाँ यह समीक्षक ही बतलावे कि जीव के रागादि परिणाम यदि उक्त न्याय के अनुसार कर्म को प्रेरणा से होते हैं तो फिर उन परिणामों को श्राचार्य ने जीवकृत क्यों कहा ? यदि वह कहे कि उन परिणामों का कर्त्ता तो स्वयं जीव ही है, कर्मों का उदय नहीं, उनका उदय तो निमित्तमात्र है । यदि ऐसा है तो हम कहते हैं कि समीक्षक को प्रकृत में ऐसा मानने में क्या आपत्ति है अर्थात् कुछ भी आपत्ति नहीं होनी चाहिये । तो यहाँ हमारा पूछना है कि श्रात्मा ने इच्छा स्वयं को कि कर्म के उदय की प्रेरणा से हुई?
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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