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________________ वाला ज्ञान ही अप्रमाण नहीं हुआ करता । अतएव उसका यह तर्क निःसार ही प्रतीत होता है कि यदि नय सम्यक है तो उसका विषय भी परमार्थभूत ही होना चाहिये - यह कोई तर्क नहीं है। असद्भूत व्यवहारनय का विषय काल्पनिक होनेपर भी, उसे प्रयोजनवश ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण हो सकता है। (२) क्रमांक १ में हम जो उत्तर दे आये हैं, वही यहां पर भी लागू होता है । (३) समीक्षक ने 'एक द्रव्य के खण्ड या दो द्रव्यों का सम्बन्ध व्यवहारनय का विषय है" यह लिखा है। सो यहां उसे यह संशोधन कर लेना चाहिये कि एक द्रव्य के अंश को पूरा द्रव्य कहना - यह सद्भूत व्यवहारनय का विषय है और कालप्रत्यासत्तिवश एक द्रव्य या उसकी पर्याय को अन्य द्रव्य के कार्य का निमित्त कहना, यह असद्भूत व्यवहारनय का विषय है। यहाँ अन्य द्रव्य या उसकी अन्य पर्याय में, अन्य द्रव्य के कार्य की वास्तविक कारणता नहीं है, फिर भी कालप्रत्यासत्तिवश उन दोनों में निमित्त-नैमित्तिक व्यवहार कर लिया जाता है, इसलिये असद्भूत व्यवहारनय का विपय माना गया है । स० पृ० ६३ में समीक्षक ने जो यह लिखा है "विवाद इस वात का है कि जहां उत्तरपक्ष ने किसी एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य की कार्य की अपेक्षा निमित्त व्यवहार करने के लिए कोई आधार मान्य नहीं किया है, वहाँ पूर्व पक्ष का (ममीक्षक का) कहना है कि जहाँ किसी एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य के कार्य की अपेक्षा निमित्त व्यवहार होता है, वहां वह निमित्त व्यवहार इस आधार पर होता है कि वह एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के कार्य की उत्पत्ती में सहायक होने से कार्यकारी होता है, सो समीक्षक का यह कहना प्रकृत में इसलिये उपयोगी नहीं है, क्योंकि एक द्रव्य के कार्य में दूसरा द्रव्य वास्तव में सहायक तो नहीं होता है। उसे जो दूसरे द्रव्य के कार्य में निमित्त माना गया है, सो वह कालप्रत्यासत्तिवश ही माना गया है, वास्तविक कारक होने की अपेक्षा से नहीं। निमित्त मानने का यही प्राधार है। आगे समीक्षक ने जितनो कुछ लिखा है वह दुहराना मात्र होने से हमने उस पर अलग-अलग विचार नहीं किया । आगे समीक्षक (स० पृ० ६४) यह तो स्वीकार कर लेता है कि "कुम्भकार घटोत्पत्ति में स्वरूप से कारण या कर्ता नहीं है, व घटस्वरूप से कुम्भकार का कार्य नहीं है।" तथापि उसका कहना यह अवश्य है कि कुम्भकार में घटोत्पत्ति के प्रति सहायक होने रूप से योग्यता का सद्भाव है और घट में कुम्भकार के सहायकत्व में उत्पन्न होने की योग्यता का सद्भाव है, अन्यथा घटोत्पत्ति में कुंभकार को निमित्त और घट को नैमित्तिक कहना असंभव हो जावेगा। "सो समीक्षक का यह कहना भी तथ्य की कसौटी पर कसने पर यथार्थ प्रतीत नहीं होता, क्योंकि न तो परमार्थ से एक वस्तु का धर्म दूसरी वस्तु में ही रहता है और न ही इस आधार पर कुंभकार को घटोत्पत्ति में निमित्त कहा ही गया है। कुंभकार को घटोत्पत्ति का जो निमित्त कहा गया है वह कालप्रत्यासत्तिवश उपचार से ही कहा गया है, अन्य कोई कारण नहीं। आगे समीक्षक ने इसी बात को दोहराकर जो अपने मत का समर्थन करने का उपक्रम किया है वह सब पुनरुक्त होने से अविचारितरम्य ही प्रतीत होता है।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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