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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६० जैन तत्त्व मामांसाको नय मिथ्या होता है । यह नयों की विशेषता भी अनिवार्य है जिस प्रकार सम्यग्ज्ञान और मिथ्या ज्ञान इस प्रकार ज्ञान दोय रूप है उसी प्रकार नय भी सम्यकू नय और मिथ्या नय ऐसे नय भी दो प्रकार की हैं इसी बात को प्रगट करते हुये आचार्य कहते हैं किअर्थविकल्पो ज्ञानं भवति तदेकं विकल्पमात्रत्वात् । अस्ति च सम्यग्ज्ञानं मिथ्याज्ञानं विशेषविषयत्वात् || ५५८ पंचाध्यायी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - ज्ञान अर्थ विकल्पात्म होता है । अर्थात् ज्ञान स्व पर पदार्थ को विषय करता है इसलिये ज्ञान सामान्य की अपेक्षा से ज्ञान एक ही है। क्योंकि अर्थ विकल्पता सबही ज्ञानों में है । परन्तु विशेष २ विषयों को अपेक्षा से उसी ज्ञान के दो भेद हो जाते हैं। सम्यग्ज्ञान और मिथ्या ज्ञान। दोनों का स्वरूप आचार्य प्रतिपादन करते हैं । "तत्रापि यथावस्तु ज्ञानं सम्यग्विशेषहेतु स्यात् । अथ चेदं यथावस्तु ज्ञानं मिध्याविशेषहेतुः स्यात् ॥ ५५६ पंचाध्यायी अर्थ- इन दोनों प्रकार के ज्ञानों में सम्यग्ज्ञान का कारण वस्तु का यथार्थ ज्ञान है। तथा मिथ्या ज्ञान का कारण वस्तु का अयथार्थ ज्ञान है। अर्थात् जो वस्तु ज्ञान में विषय पडतो है । उस वस्तुका वैसा ही ज्ञान होना जैसी की वह है उसे सम्यग्ज्ञान कहते जैसे किसी के ज्ञान में चांदी विषय पडी हो तो चांदीको चांदी हो म तब तो वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और यदि वह चांदी को सीप समझे तो वह ज्ञान मिथ्याज्ञान है। क्योंकि जिस ज्ञानमें वस्तु तो कुछ और ही पड़ी हो और ज्ञान दूसरी ही वस्तुका हो तो For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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