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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की पोस्ता पुष्टिकारक है तथा गर्मीके दिनों में इसको ठंडाईम घोंट कर पोते हैं इत्यादिक वस्तुका नाना रूप परिणमन है उसको कोई मिटा नहीं सकता। अतः ऊपर के उदारहणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अशुद्ध पदार्थ की पर्याये शुद्ध भी होती हैं और शुद्ध पदार्थ की पर्याये अशुद्ध भी होती है उसी प्रकार जीवकी भी शुद्धाशुद्ध पर्याये होती हैं । यह जीव और पुद्गलमें रहने वाली जिस प्रकार एक वैभावीको शक्ति का परिणमन है संसार अवस्थामें उस शक्तिका अशुद्ध रूप परिणमन हैं और मुक्त अबस्थामें उस शक्तिका शुद्ध रूप परिणमन है । अतः सद्भूत व्यवहार नय तो वस्तुके शुद्ध विशेषांश का प्रतिपादन करता है। जैसे एकरूप आतम दरव ज्ञान चरण हग तीन । भेद भाव परिणामयो विवहारे सुमलीन" यह सद्भूत व्यवहार नयका कथन है । तथा निश्चय नयका कथन निम्न प्रकार है यद्यपि समलव्यवहारसों पर्याय शक्ति अनेक । तदपि निश्चयनय देखिये शुद्ध निरंजन एक" अर्थात-गुणगुणीमें भेद कर कथन करना यह व्यवहार नयका लक्षण है । और जो गुण गुणीमें अभेदरूपमे कथन करना यह निश्चय नयका लक्षण है । खुलासा दरशन ज्ञान चरण त्रिगुणातम समलरूप कहिये व्यवहार । निहचै दृष्टि एकरसचेतन भेदरहित अविचलअविकार ।। सम्यकशाप्रमाण उभयनय निर्मल समल एकही वार। यो समकाल जीव की परणति कहे जिनेन्द्र गहे गणधार ।। समयसार प्रथमद्वार। For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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