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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 26 www.kobatirth.org जैन तत्त्वमीमांसा की अवलम्बन करता ही है निर्विषय वह भी नहीं होता । सारांश यह है कि कोई पदार्थ के स्वरूपको नहीं समझने वाले ज्ञानको वट पटादि पदार्थोका धर्म बतलाते हैं । कोई कोई ज्ञेयक धर्मको ज्ञायक बतलाते है । अथवा विषय विषय के सम्बन्धस किन्ही किन्दाको भ्रम होजाता हैं उन सबका अज्ञान दूर करना हो इस नयका फल है । इस नय द्वारा यही बात बतलाई गई है कि विकल्पता ज्ञानका साथक है । अर्थात् घट ज्ञान पट ज्ञान इत्यादि ज्ञानके विशेषण साधक है। सामान्य ज्ञान साध्य है । उप युक्त विशेषणोंसे सामान्य ज्ञान की ही सिद्धि होती है। ज्ञानमं घटादिक धर्मका सिद्धि नहीं होती। ऐसा यथार्थ परिज्ञान होने से ज्ञेय ज्ञायक में शंकरताका बोध कभी नहीं हो सकता। यह सद्त उपचरित व्यवहार नयका फल | भू भूत कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा इसको अपरमार्थ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जा सकता । यहां पर कोई यह कहें कि सद्भूत व्यवहार नय तथा लभूत अनुपचरित व्यवहार नय एवं सद्भूत उपचरित व्यवहार जयका विषय तो स्त्र वस्तु शाम ही है कथंचित् परमार्थभूत भी समझा जा सकता है । किन्तु असद्भूत व्यवहार नय तथा असद् भूत श्रनुपचरित व्यवहार नय और असद्भूत उपचरिक्त यवहार नयका विषय तो दूसरे द्रव्यके गुण दूसरे द्रव्यमें विवक्षित किये जाय यह है इसीका नाम श्रसद्भूत व्यवहार नय है इसलिये असद्भूत व्यवहार नयका कहना तो अदभूत ही है अर्थात् परमार्थभूत ही है । जब असद्भूत व्यवहार नय अपरमार्थ भूत है तव सद्भूत व्यवहार नय परमार्थ भूत कैसी ? क्योंकि इन दोनों नयों का आधार भूत एक व्यवहार नय ही तो है। उसी के यह दो भेद हैं इसलिये उसका एक अंश सत्य और दूसरा अंश For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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