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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की पर्याये अनेक है इसलिये उनको विषय करनेवाले ज्ञान भी अनेक है । तथा उसको प्रतिपादन करने वाले वाक्य भी अनेक हैं। पर्यायार्थिकनय इति यदि वा व्यवहार एव नामेति । एकार्थो यस्मादिह सर्वोप्युचारमात्रः स्यात् ५२१ पंचा० ___ अर्थ-पर्यायाथिक नय कहो अथवा व्यवहार नय कहाँ दोनों का एक हो अर्थ है । मभी उपचार मात्र है । व्यवहार नय उपचरित इसलिये है कि वह वस्तु स्वरूपको यथार्थ रूप को नहीं कहता । वह व्यवहारार्थ पदार्थमें भेद करता है । वास्तव दृष्टिसे पदार्थ वेसा नहीं है। इसलिये व्यवहार नय को उपचरित कहा गया है। यही बात भी देवसेन आचार्य ने कहा है । कथमुपनयस्तस्य जनक इतिचेत् ? सद्भूतो भेदोत्पाद कत्वात् अभद्भनस्तु उपचारोत्पादकत्वात् उपचरितासद्धतस्तु उपचारादपि उपचारोत्पादकत्वात् । योऽसौ भेदोषचारलक्षणोऽर्थः सोऽपरमार्थ अतएव व्यवहारोऽपरमार्थ प्रतिपादकत्वाद परमार्थः। __ अर्थात् --जिम वस्तु का विशेष गुग उनी वस्तुम विवक्षित करना इतना अंश तो सद्भत का स्वरूप है। तथा गुणोसे गुण का भेद करना इतना अंश व्यवहारका स्वरूप है । तथा वह गुण उम वस्तुमें परसे उपचरिन करना इतना अंश उपचरितका है । जीव को ज्ञानवाला कहना यह नद्भून उपचारित व्यवहार नय कहलाना है। यह ज्ञानको विकल्पात्मक अवस्था है। यहां पर ज्ञानका रूप उसके विषयभूत पदार्था के उपचारमे सिद्ध किया जाता है । तथापि विकल्ल रूप ज्ञानको जोक्का ही गुण वनलाना इसलिये यह उपचरित मद्भूत व्यवहार नयका विषय है। अर्थान ज्ञान द्यपि निर्विकल्प होनेसे मन्मात्र है इसलिये ऊपर्युक्त विकयल्प For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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