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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा रहित अन्त धर्मात्मक एक अखंड पिण्ड वस्तु सामान्य रूप से प्रतिभासती है इसलिये निश्चय नय परमार्थ भूत है । यदि वह निश्चय नय व्यवहार नय निरपेक्ष हो तो वह भी परमार्थभूत है । इसका कारण यह है कि पदार्थ सामान्य विशेषात्म है अतः सामान्य को छोड़कर कोई विशेष अलग नहीं तथा विशेष को छोडकर कोई सामान्य अलग नहीं इसलिये सामान्य विशेष रूप वस्तु ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है । वह ज्ञान दोनू नयों के द्वारा ही हो सकता है एक के द्वारा नहीं क्योंकि वस्तुमें सामान्यका ज्ञान निश्चय नय द्वारा होता है और विशेषका ज्ञान व्यवहार नय द्वारा होता है इसलिए वस्तु सामान्य का ज्ञान होता है वहां विशेष को छोडकर सामान्य नहीं होता अथवा जहां परवस्तु में विशेष का ज्ञान होता है वहां पर सामान्य को छोड कर विशेष का ज्ञान नहीं होता । अतः निश्चय व्यवहार दोन नय सापेक्ष ही परमार्थ भूत है निरपेक्ष दोनू ही नय मिश्रया हैं श्रपरमार्थभूत हैं। इस वात को हम ऊपर भी स्पष्ट कर चुके हैं। तथा आगे भी स्पष्ट कर देते हैं । "इदमत्र तु तात्पर्यमधिगंतव्यं चिदादि यद्वस्तु । व्यवहार निश्चयाभ्यामविरुद्धं यथात्मशुद्धश्रर्थम् " ६६२ पं अर्थात् यहां पर तात्पर्य इतना ही है कि जीवादिक जो पदार्थ हैं वे सव श्रात्म शुद्धिके लिये तव ही उपयुक्त हो सकते हैं जव कि वे व्यवहार और निश्चय नय के द्वारा अविरुद्ध रीतिसे जाने जाते हैं । अन्यथा नहीं | अनेक प्रमाणोंके द्वारा ऊपर में यह सिद्ध किया जाचुका है कि वस्तु उभयात्म है अर्थात् सामान्यविशेषात्मक है सामान्यसे भिन्न विशेष नहीं और विशेषसे भिन्न सामान्य नहीं अतः दोनोंका तादानमक सम्बन्ध है इसलिये पदार्थ कथंचित् अभेदरूप भी है कथं For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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