SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ___ तथा भाव निक्षेप पर्यायाथिक नय है । नथा निक्षेप विषय विषयीके भेदसे जुदे भी है। सत्यं गुणसाक्षेषो सविपक्षः स च नयः स्वपक्षपतिः । य इह गुणाक्षेपः स्यादुपचरितः केवलं म निक्षपः । ७४. पंचाध्यायी अर्थात् नय तो गौण और मुख्य को अपेक्षा रखता है। इसलिये वह विपक्ष सहित है नय मदा अपने विवक्षित पक्षका स्वामी है । अर्थात् वह विवक्षित पक्ष पर आरूढ रहा है और दूसरे प्रति पक्षकी अपेक्षा भी रखता है। किन्तु निक्षेपमें यह बात नहीं है। यहां तो गौण पदार्थमें मुख्यका आक्षेप किया जाता है इसलिये निक्षेप केवल उपचरित है। निक्षेप और नगमें सबसे बढा भेद तो यह है कि नय तो ज्ञान विकल्प रूप है और निक्षेप पदार्थो में व्यवहार के लिये हुये संकेतोंका नाम है। अतः संकेत करि कहीं तो तद्गुण होता है और कहीं पर अतद्गुण होता है नय और निक्षेपमें विषय विषयी सम्बन्ध है । नय विषय करने वाला ज्ञान है और निक्षेप उनका विषयभूत पदार्थ है। इसलिये नयोंके कहनेसे ही निक्षेपोंका विवेचन स्वयं हो जाता है। अतः इनका स्वतंत्र उल्लेख करनेकी श्रावश्यकता नहीं है फिर भी यह शंका हो सकती है कि जन निक्षेप नयका ही विषय है दो फिर चार निक्षेपीका स्वतंत्र विवेचन सूत्रों द्वारा ग्रंथकारोंने किसलिये किया है ? इसके उत्तरमें इतना ही क ना पर्याप्त है कि केबल समझाने के लिये निक्षेपों का निरूपण किया गया है । अन्यथा विषयभूत पदार्थों में ही वे गर्मित हो जाते हैं। दूसरे भिन्न भिन्न व्यवहार चलाना ही नियोका प्रयोजन है । इसलिये उस प्रयोजनको स्पष्ट करनेके लिये प्रथकारोंने उनका निरूपण For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy