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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की ... .........xxx.imir................ ....... कारण यही है कि वस्तु केवल अंशमात्र ही नहीं है अंशोंका समुदायरूप वस्तु है इसलिये अंशरूपवस्तु सत्यार्थ नहीं होने अंशरूप वस्तु भी अपरमार्थभूत ही है और अंशरूप वस्तुका प्रतिपादन करनेवाला व्यवहारनय मी श्रपरमार्थभूत ही है। क्यों कि एकान्तवादसे वस्तुस्वरूपकी सिद्धि नहीं होती । इसलिये श्राचार्योंने एकान्तवादका परिहार करने के लिये ही स्याद्वादशैलीको अपनाया है इसके विना वस्तुस्वरूपकी सिद्धि नहीं होतो क्योंकि वस्तुस्वरूपही ऐसा है वह एकान्तवादसे सिद्ध नहीं होता इसलिये वस्तु एकरूप है अनेक रूप है, भेदरूप है अभेदरूप है, अस्तिरूप है, नास्तिरूप है, इत्यादिक अनन्तधर्मात्मकस्वरूप वस्तु है उसका कथन एक धर्मको मुख्य और दूसरे धर्मको गौण करके किया जाय तो वह कथन सत्यार्थ ही है । क्योंकि वचनमें यह ताकत नहीं है कि वह अनन्तधर्मोको एक साथ कह सके इसलिये वहां वचन सत्यार्थ है जो दूसरे धर्मों के सापेक्ष उस्तुके एक धर्मका प्रतिपादन करे । मारांश यह है-वचनके कहे विना तो वस्तुस्वरूपका वध होता नहीं और वचन है सो संख्यात् ही है इसलिये वह वस्तुके अनन्तधर्मीका प्रतिपादन एकमाथ कर नहीं सकता, वह क्रमक्रमसे ही कर सकता है । अतः क्रम क्रमसे कथन करना तवही सत्यार्थ होसकता है जब कि वह एक धर्मको मुख्य और दूसरे धर्मको गौण करके कथन करे यदि वह दूसरे धर्मको गौण न करे एक धर्मको कहे तो वह वचन मिथ्या है इसलिये आचार्य कहते हैं कि अनेकान्तोप्यनेकांतः प्रमाणनयसाधनः । निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षाः वस्तुतेऽर्थकृत् । न्यायदीपिका अर्थात् प्रमाणनयोंसे सिद्ध होनेवाला अनेकांत भी अनेकांत है, यदि प्रमागके एक देशको निश्चयात्मक केवल स्वभाव पर्यायको या केवल पवहारात्मक विभावपर्यायको ग्रहण करनेवाला निश्चय For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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